चाणक्य नीति – अध्याय 8

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चाणक्य नीति अध्याय 8 (Chanakya Niti Chapter 8 in Hindi)
चाणक्य नीति अध्याय 8 (Chanakya Niti Chapter 8 in Hindi)

चाणक्य नीति अध्याय 8 (Chanakya Niti Chapter 8 in Hindi)

अधमा धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।

भावार्थ– अधम धन, मध्यम धन व मान दोनों तथा उत्तम श्रेणी के व्यक्ति सिर्फ मान की अभिलाषा करते हैं, क्योंकि महापुरुषों या मुनियों के लिए सम्मान ही सबसे बड़ा धन होता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि इस जगत् में अधम मनुष्य धन को ही महत्त्ववान बताते हैं। उन्हें जैसे-तैसे धन कहीं से भी मिलना ही चाहिए, केवल धन प्राप्त कर लेना ही उनके जीवन का एक मुख्य उद्देश्य होता है या लक्ष्य होता है, इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह अपने किसी भी स्तर का इस्तेमाल कर सकते हैं और मान-सम्मान उनके लिए कोई महत्त्व कदापि नहीं रखता।

चमड़ी बेचकर धन कमाने वाली वेश्या की महान कोटि या श्रेणी में ही ऐसे लोगों को रखा जाना चाहिए। मध्यम स्तर या श्रेणी के मनुष्य धन के संग ही संग मान को महत्त्व देते हैं। उन्हें धन तो जरूर चाहिए मगर सम्मान देकर नहीं बल्कि सम्मानयुक्त।

इस प्रकार से उनके जीवन का महत्त्व धन और मान दोनों को प्राप्त कर लेना होता है। इन दोनों से पृथक् उत्तम श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनके जीवन का महत्त्व केवल सम्मान को हासिल करते रहना, इनका उद्देश्य बन जाता है। अत: उनका व्यवहार भी उसी प्रकार का होता है। 

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।
भक्षयित्वाऽपि कर्तव्याः स्नानदानाऽऽदिकाः क्रियाः।। 

भावार्थ– अनेक मनुष्य स्नान ध्यान किए बिना कोई चीज ग्रहण नहीं करते, परन्तु आचार्य चाणक्य के मतानुसार फलों का रस, औषधियां, दूध आदि का सेवन आवश्यकता पड़ने पर आदि से पूर्व किया जा सकता है और उसके पश्चात् शुभ कार्य करने में कोई दोष नहीं होता है।

व्याख्या– गन्ना और उसका रस, पानी, दूध, जड़ी-बूटी, पान, फल एवं औषधि के सेवन के उपरान्त भी स्नान, संध्या पूजन, दान, तर्पण नित्य कर्म किए भी जा सकते हैं। अभिप्राय यह है कि यदि कोई रोग ग्रस्त है, बेचैन-परेशान है, तृषा पीड़ित है या क्षुधाग्रस्त है तो उसे स्नान व सन्ध्योपासन से पहले औषध, दूध, जल तथा फल आदि के सेवन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। इनके ग्रहण करने के उपरान्त भी यदि वह दान, पूजा आदि शुभ कर्म करता है तथा शुभ कर्म करने में मग्न रहता है तो वह पाप कर्म का हिस्सेदार नहीं होता। शास्त्र मनुष्य को इस प्रकार की सुविधा भी प्रदान करते हैं।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि ‘दीपक अंधेरे (कालिमा) को भक्षण करता है तो उससे काजल ही धुएं के समान उत्पन्न होता है। जो जैसे भोजन को ग्रहण करता है, उससे वैसे ही विचार या गण उत्पन्न होते हैं।’

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने यहां पर भोज्य पदार्थों के प्रभाव की विशेषता का वर्णन करते हुए एक अद्भुत उदाहरण दिया है। दीपक की लौ अंधेरे को दूर करने में सक्षम है, मगर आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि वह अंधेरे का भक्षण करती है और कालिख को जन्म भी देती है, अर्थात् काली को खाकर कालिख को पैदा करना।

अभक्ष्य (मांस, मदिरा, मछली आदि तामसी भक्षण) जाने पर वैसे ही गुण प्राणी में जन्म लेते हैं। यदि भोजन सात्त्विक हो तो सात्त्विक गुण ही पैदा होंगे। भक्षण का विशेष प्रभाव सन्तान पर भी पड़ता है और वे भी वैसे ही गुणों वाले हो जाते हैं, निष्कर्ष यह, ‘जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन’ है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

चाण्डालानां सहस्रेषु सूरिभिस्तत्वदर्शिभिः।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात्परः।।

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक में बताया गया है यवन से सदैव ही बचे रहना चाहिए।

व्याख्या– ज्ञान और अनुभव की उक्ति भी प्रचलित है, कि एक म्लेच्छ यवन एक हजार चाण्डालों से बड़ा होता है। यवन के बराबर कोई नीच नहीं होता। हजारों चाण्डाल जितना उपद्रव मचाते हैं, एक अकेला यवन उससे अधिक कहीं बढ़कर करता है। इस नीच यवन से दूर से ही नमस्कार करने में हित है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचित्
प्राप्तं वारिनिधेर्जलं घनमुखे माधुर्ययुक्तं सदा।
जीवान्स्थावरजङ्गमांश्च सकलान् संजीव्य भूमण्डलम्।
भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्तमम्भोनिधिम्।। 

भावार्थ– गुणी मनुष्यों को दौलत दो गुणहीन को कदापि नहीं। समुद्र का खारा जल जिस प्रकार बादलों में मीठा हो जाता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है-बुद्धिमान मनुष्यो! सदा ही गुणी व्यक्तियों को दान के रूप में धन या अन्य पदार्थ दे देना चाहिए अन्यथा गुणहीन व्यक्ति को नहीं। अपने मन्तव्य को उन्होंने एक उदाहरण के रूप में लिखा हैसमुद्र द्वारा गुणी बादलों को दिया गया खारा जल मेघ के मुंह में जाने के पश्चात् मृदु बन जाता है और मेघ उस पानी की वर्षा कर भूमण्डल के समस्त जड़ चेतन को जीवन सुलभ कराता है।

वर्षा जल के रूप में मेघ द्वारा बरसा पानी समुद्र द्वारा मेघ को दिए पानी की अपेक्षाकृत करोड़ों गुणा वृद्धि कर फिर उसी समुद्र में लीन हो जाता है, स्पष्ट होता है कि समुद्र ने गुणी मेघ को पानी दान कर अपने समस्त जल को मृदु बना लिया, जड़-चेतन को जीवन देने का पुण्य कर्म अर्जित कर लिया और दिए गए जल से अधिक मात्रा में दोबारा जल प्राप्त कर लिया। अत: गुणी को प्रदान किया गया दान अति फलप्रद है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

तैलाऽभ्यंगे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाऽऽचरेत्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि तेल लगाने (देह, सिर पर) पर, चिता का धुआं लगाने पर जिस समय श्मशान में जाया जाता है, मैथुन (रति क्रिया) करने के बाद और सौर कर्म (सिर गंजा कराना) के बाद व्यक्ति चांडाल के रूप समान ही अपवित्र होता है, जब तक स्नान कर पवित्र शुद्ध नहीं हो जाता उसे कोई भी सांसारिक कत्य नहीं शरू करना चाहिए।

व्याख्या– देह में जब तेल फैला होता है तो त्वचा की गंदगी हाथों व शरीर में चिपटी होती है, मैथुन में देह के सभी कूपों के पसीनों के रूप में गंदगी बसी रहती है। जब सिर का मुंडन करवाया तो या हजामत कर्म किया जाए तो बालों के सूक्ष्म टुकड़े तन से चिपककर गंदगी पैदा करते हैं। उपर्युक्त सभी हानिप्रद हैं, स्नान के पश्चात् ही शरीर शुद्ध पवित्र होता है, ऐसे कर्मों के उपरान्त स्नान अवश्य करें।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम्।।

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अजीर्ण में जल औषधि है, जीर्ण में बलदायक, भोजन के बीच में यह अमृत है, भोजन के बाद विष।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने यहां पीने के जल के गुणों को व्यक्त किया है, यदि अपच हो तो लगातार पानी का सेवन करने से पाचन क्रिया ठीक हो जाती है, यहां पानी औषधि का कार्य करता है, यदि दस्त हो रहे हैं तो पानी और नमक का घोल पीने से देह का बल कमजोर नहीं होता, भोजन के बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पी लेना स्वास्थ्य के लिए अमृत लाभ के समान होता है, परन्तु भोजन के तुरन्त बाद पानी का सेवन विष के समान है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः।। 

भावार्थ– आचरण या व्यवहार के बिना ज्ञान का कोई मूल्य नहीं। अज्ञान से मनुष्य का पतन हो जाता है। सेना-संचालक के बिना सेना तथा पति बिना नारियां भ्रष्ट हो जाती हैं। 

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि वह ज्ञान पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है जो क्रियात्मक ना हो। अज्ञानता से मनुष्य खत्म हो जाता है। नायक से पृथक सेना पराजित होती है और बिना पति के स्त्री नष्ट हो जाती है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं तिस्रः पुंसां विडम्बनाः।।

भावार्थ– वृद्धावस्था में पत्नी का मर जाना, अपनों द्वारा कपट से धन हड़प लेना, दूसरों की अधीनता में भोजन करना-ये तीनों दुःखों के पात्र हैं या दुखदायक हैं।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि बूढ़े पुरुष की पत्नी का स्वर्गवास होने तथा जीवनसाथी के छूटने का इतना वियोग होगा कि वह मृत समान हो जाएगा। किसी का अपना कमाया धन उसके स्वयं के समक्ष न रहकर बंधु-बांधवों के पास चला जाए तो वह वापिस नहीं मिलता, धनहीन होने का कष्ट भी देहान्त के समान है। भोजन की पराधीनता भी मृत्युतुल्य कष्टकारी है। इन तीनों विपत्तियों को घुट-घुटकर सहन करने योग्य ही मृत्यु को अतिशीघ्र प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य पराधीनता सपनों में सुख को भी प्रदान नहीं करती है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

नाग्निहोत्रं विना वेदा न च दानं विना क्रिया।
न भावेन विना सिद्धिस्तस्माद्भावो हि कारणम्।।

भावार्थ– इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि श्रद्धा के विमुख कोई कार्य सफल सम्पन्न नहीं होता है।

व्याख्या- अग्निहोत्र न करने वाले वेदों का पढ़ना व्यर्थ होता है, बिना दान के यज्ञादि पूर्ण नहीं होते, बिना भाव के सिद्धि को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः सभी से प्रेम का भाव. ही प्रधान होता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

ने देवो विद्यते काष्ठेन पाषाणेन मृण्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद भावोहि कारणम्।। 

भावार्थ– श्रद्धायुक्त कोई भी कल्याणकारी कार्य किया जाए, उस कार्य में ईश्वर की कृपा दृष्टि से अवश्य ही सफलता हासिल होगी। अतः व्यक्ति की श्रद्धा से परिपूर्ण या ओत-प्रोत भावना ही प्रतिमा में देवतां का वास मानती है और इस भावना का अभाव ही प्रतिमा को साधारण जड़-पदार्थ दर्शनीय रूप बना देता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यहां पर गहराई और सच्चाई से विचार किया जाए, तो जगत् प्रचलित उक्ति सत्य ही सिद्ध होती है-मानो तो शंकर अन्यथा कंकर। इसी विषय में आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि परमेश्वर न काष्ठ (लकड़ी) में है और न ही पत्थर की प्रतिमा में। परमेश्वर तो मानव हृदय की भावना में निहित है। प्रत्येक मनुष्य के मन की सच्ची श्रद्धा भावना में ईश्वर का वास है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

काष्ठपाषाणधातूनां कृत्वा भावेन’ सेवनम्।
श्रद्धया च तया सिद्धस्तस्य विष्णुः प्रसीदति।।

भावार्थ– जो व्यक्ति जिस भावना के संग मूर्ति को पूजना है, श्रीविष्णुजी नारायण की कृपा दृष्टि से वैसी ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। शास्त्रों के अनुसार अभीष्ट सिद्धि हेतु साधक द्वारा श्रद्धायुक्त मूर्ति पूजना ही उचित है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि हृदय की भावना या श्रद्धायुक्त यदि लकड़ी या धातु से निर्मित प्रतिमा की पूजा की जाएगी तो सर्वव्यापक ईश्वर अपने भक्त की भावना या भाव से हर्षित होंगे। उस पर अटूट श्रद्धा से भक्त को कोई न कोई सर्वोत्तम फल अवश्य ही प्राप्त होता है। जड़-वस्तु में भी परमात्मा का वास होता है, परमश्वर को ही वृत्ति मान उसका सम्पूर्ण आदर करना चाहिए।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम्।
न तृष्णायाः परो व्याधिन च धर्मो दयापरः।। 

भावार्थ– अतः सुख की अभिलाषा करने वाले मनुष्य को तृष्णा से अवश्य बचना चाहिए तथा सफल जीवन में शान्ति, सन्तुष्टि और दयालुता को अपना लेना चाहिए, इसी में महानता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य जी ने कहा है कि हृदय का संयम यानि शांति और दृढ़ भाव के रूप समान कोई दूसरी तपस्या नहीं, सन्तोष जैसा कोई सुख सागर नहीं, तृष्णा जैसा कष्ट प्रदान करने वाला कोई भयंकर व्याधि नहीं तथा दया के पात्र जैसा स्वच्छ और पवित्र दूसरा कोई धर्म नहीं होता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम्।।

भावार्थ– क्रोध या गुस्से में मनुष्य पाप कर देता है, वह यमराज के रूप समान बन जाता है, तृष्णा वैतरणी के समान होती है, विद्या कामधेनु तथा सन्तुष्टि. नन्दन वन के रूप समान है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि क्रोध में व्यक्ति का पतन होता है, इसलिए क्रोध को साक्षात यमराज की संज्ञा से विभूषित किया गया है। तृष्णा को वैतरणी नदी कहते हैं, क्योंकि तृष्णा का मिट जाना उतना ही मुश्किल है, जितना कि वैतरणी को पार करना। विद्या समस्त प्रकार का फल प्रदान करती है, इसलिए यह वंदना के काबिल होती है, किन्तु सन्तुष्टि की जगह निर्बाध गति से आनन्द प्रदान करने वाली होने के कारण मात्र से सर्वोपरि है, साथ ही सन्तोष इन्द्रदेव के विहार स्थान नंदन वन के रूप समान मनमोहक और असीम सुखप्रद भी होता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्।
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्।। 

भावार्थ– अतः सुन्दरता या रूप के संग सद्गुण, उच्चतम वंश के संग शील स्वभाव, ज्ञान के संग सिद्धि व संचित धन का सदुपयोग, इन चारों से सम्पन्न मनुष्य का जीवन बहुत हर्षित होता है। ऐसे सद्पुरुषों की प्रसिद्धि चारों तरफ फैल जाती है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी भी मनुष्य का अति सुन्दर होना अच्छा होता है, किन्तु संग-संग गुणवान होने से उसकी सुन्दरता में वृद्धि होकर दोगुनी हो जाती है। उसकी हर ओर प्रसिद्धि मिलती है। वंश श्रेष्ठ होने के साथ यदि स्वभाव में शीलवान व कुशल व्यवहारी भी हो तो कुलीन होना फलप्रद है। धन या दौलत की तो सार्थकता ही उपयोग कर देने में है, यदि व्यक्ति अपने द्वारा संचित धन को उपयोगी न बनाकर उस पर सांप की तरह कुंडली मारकर बैठ जाता है, तो उसका संचित धन निरर्थक साबित हो जाता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्।
असिद्धस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि गुणहीन व्यक्ति का रूप महत्त्वहीन बनकर रह जाता है। जिसके सदस्य शील आचरण से युक्त नहीं होते, वह वंश बदनामी पाता है। सिद्धि के बिना विद्या समाप्त हो जाती है, और धन का उपयोग न करने पर धन का पतन हो जाता है।

व्याख्या– गुणहीन व्यक्ति के रूप का कोई पृथक् महत्त्व नहीं होता, आचरण हीनता समस्त वंश की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा देती है। विद्या को भली प्रकार से हृदयंगम न किया जाए तो वह समाप्त हो जाती है। धन का भोग न. करना, चोरलुटेरों को पैदा करना है या इनके कार्य में प्रयोग होता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

शुचिर्भूमिगतं तोयं शुद्धा नारी पतिव्रता।
शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः।। 

भावार्थ– तात्पर्य यह है कि कुएं से निकलने का जल, पतिव्रता स्त्री (जो केवल पति के संग संभोग करती है), प्रजा कल्याणी सम्राट और थोड़े में संतुष्टि पाने वाला ब्राह्मण वांछनीय है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि धरा से उत्पन्न होने या निकलने वाला पानी पवित्रतम व शुद्ध कहा जाता है, पतिव्रता नारी सदा ही शुद्धतम और पवित्र होती है, प्रजा के कल्याण में मग्न रहने वाला राजा सदैव पवित्र होता है और सन्तोष करने वाला ब्राह्मण (जो भी मिले उसी में सन्तुष्टि) भी शुद्ध और पवित्र होता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः।
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गनाः।। 

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक द्वारा स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण की सन्तोषी, राजा को महत्त्वाकांक्षी, वेश्या को निर्लज्ज और परिवार की सद्गृहस्थ नारी को शीलसंकोच की देवी बनना चाहिए।

व्याख्या– सन्तोष से पृथक् ब्राह्मण समाप्त हो जाते हैं और सन्तोषी सम्राट लोग खत्म हो जाते हैं । लज्जाशील वेश्याओं का अंत हो जाता है और लज्जाहीन वंश । की स्त्रियों का पतन हो जाता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्।
दुष्कुलीनोऽपि विद्वांश्च देवैरपि सुपूज्यते।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विद्या से पृथक् विशाल, बड़े वंशज से व्यक्तियों को क्या फायदा? नीच वंश में जन्म लेने वाला विद्वान देवों द्वारा अत्यधिक पूजा गया है, अत्यधिक आदर मान-सम्मान का उत्तराधिकारी बनता है।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि उच्च वंश में उत्पन्न विद्याहीन मनुष्य से श्रेष्ठ एक नीच कुल में जन्मा विद्वान है, जो कि देवताओं और विद्वानों द्वारा सम्मानित या पुरस्कृत दृष्टि से देखा जाता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् गच्छति गौरवम्।
विद्यया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते।।

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने कहा है कि एक धनवान मनुष्य की इतनी प्रशंसा नहीं होती, जितनी कि एक विद्वान की प्रशंसा होती है। 

व्याख्या– आचार्य चाणक्य के मतानुसार, जग में विज्ञान मनुष्य ही प्रशंसा का पात्र होता है, तथा विद्वान ही आदर-सम्मान, मान का हकदार होता है। उसे ही यश और प्रशंसा प्रदान की जाती है। विद्या के धन-धान्य, मान, गौरव, यश, प्रतिष्ठा आदि सभी कुछ प्राप्त भी होता है, विद्या जगत् में सभी स्थानों पर पूजनीय होती है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

रूप यौवन सम्पन्ना विशाल कुल सम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गधा इव किंशुकाः।।

भावार्थ- आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में विद्या के महत्त्व को सर्वोपरि बताया है।

व्याख्या– रूप और यौवन से परिपूर्ण तथा सर्वोच्च वंश में जन्म लेने पर भी मनुष्य उस प्रकार से सुसज्जित नहीं होता है, जैसे कि केसू के पुष्प अति सुन्दर होकर भी बगैर महक के सुशोभित नहीं बन पाते।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

मांसभक्षैः सुरापानैर्मूर्खेश्चाक्षर वर्जितैः।
पशुभिः पुरुषाकारैर्भाराऽऽक्रान्ता च मेदिनी।।

भावार्थ– मांस भक्षी, मदिरापेयी धूर्तों व निरक्षरों, पुरुष रूपी पशुओं के भार से भू दबी व पीड़ा ग्रस्त रहती है।

व्याख्या– मांस खाने वाले, मदिरा का रसपान करने वाले, अनपढ़ मूर्ख व्यक्ति मनुष्य के रूप में पशु समान हैं, क्योंकि इनके समस्त प्रयत्न विवेक रहित बन जाते हैं। इनका खाना-पीना, जागृत-शयन तथा मैथुन कर्म से सन्तान को जन्म देना आदि पशुओं से पृथक् नहीं। इस प्रकार से विद्या व विवेक पृथक् व्यक्ति रूपधारी पशुओं के भार से यह धरती माता हद से ज्यादा पीड़ित है अर्थात् ऐसे मनुष्य भू के भार योग्य हैं।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

अन्नहीनो दहेद् राष्ट्र मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः।।

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने यज्ञ विरोध न करते हुए यज्ञ में होने वाली ‘असुरक्षा से होने वाली घटनाओं से होने वाले नुकसानों का दिशा-निर्देशन करके उनसे बचाव करने में यज्ञ को सार्थक बनाने और लाभ के लिए अभिप्रेरित किया गया है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य जी ने कहा है कि यज्ञ के द्वारा व्यक्ति सभी मांगलिक कार्य करता है। यज्ञ कल्प वृक्ष के रूप समान होता है, परन्तु विधि के विधान में कोई अभाव रहने पर यज्ञ करने से बहुत बड़ी घटना भी हो सकती है। यज्ञ के साथ-साथ अन्नदान न किया जाए, मंत्रोच्चार न हो, यज्ञ करने वाले पुरोहितों को यजमान के द्वारा उचित दान-दक्षिणा को न देने से भी तो यज्ञ अनर्थकारी हो जाता है, क्रियाहीन यज्ञ खतरा बन जाता है। विशेष तथ्य यह है कि शुद्ध और पवित्र मंत्र पाठ, अन्न का दान और दान-दक्षिणा की उपेक्षा करने से यज्ञ करने वाले पक्षकारों को हानि द्वारा पीड़ा पहुंचाता है।

(चाणक्य नीति अध्याय 8)

Conclusion

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