
Adhyay Three – Chanakya Niti In Hindi (Moral Story)

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः ।
व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ।।
भावार्थ – इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि किसी वंश में कोई अवगुण नहीं है ? रोग किसे पीड़ा नहीं पहुंचाता ? व्यसन किसमें विद्यमान नहीं रहता है ? सदैव सुखों का रसपान किसने किया है ?
व्याख्या – व्यक्ति गुण , स्वास्थ्य , व्यसनग्रस्तता और सुखों का रसपान करने को तत्पर रहता है ।
अपने घरवालों को इस ओर अग्रसर करता है , किन्तु जरा – सी असावधानी होने पर किसी के प्रति भी निन्दा , प्रतिष्ठा , उपेक्षा का रूप अपना लेता है ।
आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जगत् में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं , देवता और उनके अवतार तक नहीं कि जिनमें अवगुण ना हों।
प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई दोष अवश्य ही विद्यमान होता है।
जो कभी अस्वस्थ ना हुए हों, जिनमें कोई व्यसन ना हो और जो सदैव सुखों के सागर में लीन रहे हों, ऐसे मनुष्य इस जगत् में कहां हैं?
ऐसे मनुष्य दिया लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिल सकते तो फिर ऐसे व्यक्तियों के प्रति घृणा की धारणा क्यों?
जरा अपने हृदय में तो झांककर देखिए, क्या आप वही तो नहीं जो अपने आपका प्रदर्शन करते हैं। (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ।।
भावार्थ – आचार्य चाणक्य जी कहते हैं कि पवित्र आचरण से अपने वंश की ख्याति , भाषण या बोलने की शैली से अपने देश की ख्याति , आदर – सत्कार से प्रेम की ख्याति और भोजन से देह की ख्याति में वृद्धि होती है ।
व्याख्या– व्यवहार से अपने देश की, भाषण करने में अपनी शैली से अपने देश की, आदर – सम्मान से प्रेम – पुष्प की और भोजन करने से देह की प्रशंसा से वृद्धि होती है ।
अतः इन सभी बातों को स्मरण रखना चाहिए एवं ये बातें मनन करने योग्य बनती हैं । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

सुकुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत् ।
व्यसने योजयेच्छत्रु मित्रं धर्मे नियोजयेत् ।।
भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि पुत्री को अच्छे वंश , पुत्र को विद्या का अध्ययन एवं दुश्मन को व्यसन एवं परम मित्र को धर्म में प्रवृत्त होना चाहिए ।
व्याख्या – यहां पर लोक आचरण के सम्बन्ध में निर्देशित किया गया है कि को अपनी पुत्री का विवाह संस्कार उत्तम वंश में करना चाहिए ।
पुत्र को विद्या में संगति देनी चाहिए और मित्र को धर्म की ओर रुख करना चाहिए ।
इसी में मनुष्य का कल्याण सम्भव है । जो मनुष्य इन सभी बातों को ज्ञान से स्मरण करता है , वह अपने समस्त कार्यों में स्वयं शर्मिंदा कदापि नहीं होता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ।।
भावार्थ – उपर्युक्त श्लोक में परिभाषित किया गया है कि सर्प एवं दुर्जन में चुनाव करना है तो सर्प को ही चुने और सर्वथा दुर्जन से बचे , सर्प तो सिर्फ एक बार दंश देता है , मगर दुर्जन व्यक्ति तो पग – पग पर सदैव ही दंश दैता रहता है । जिसका दंश पानी भी नहीं मांगता है ।
व्याख्या – यहां आचार्य चाणक्य अपने निर्मित श्लोक में दुर्जन व्यक्तित्व को जहरीले सर्प दंश से भी खतरनाक बताते हैं और पीड़ादायक बताते हुए कहते हैं कि एक बार सर्प दंश से मृत्यु संभव हो सकती है , लेकिन दुर्जन के दंश से तो अनेक बार मृत्यु ( आत्म सम्मान ) होती है ।
सर्प तो एक दंश मारता है और मृत्यु कारित करके त्याग देता है , मगर दुर्जन के दंश से तो अनेक बार मृत्यु कष्ट सहन करना पड़ता है , इसलिए दोनों में से किसी एक को ग्रहण करना पड़े तो सिर्फ सर्प दंश को चुने मगर दुर्जन को कदापि नहीं । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम् ।
आदिमध्याऽवसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम् ।।
भावार्थ– राजागण अपने समक्ष वंशज व्यक्तित्व का संगठन इसलिए निर्मित करते हैं कि वे उन्नति , अवनति , उत्कर्ष व विपत्तिकाल , जय – पराजय की स्थिति में भावार्थ राजा को कदापि न छोड़ें ।
व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि राजा लोग और राजपुरुष श्रेष्ठतम एवं विशिष्ट राजकीय सम्बन्धित सेवाओं में भर्ती को प्राथमिकता का आधार मानते हैं , क्योंकि सर्वोच्च संस्कारों तथा परम्परागत शिक्षा या विद्या अध्ययन के कारण राजा की संगत कभी नहीं त्यागते ।
वे उसकी उन्नति और अवनति के समयचक्र में भी उसका साथ निभाते हैं ।
वे हर परिस्थिति में एक समान सेवाभाव से अपने स्वामी के भक्त बनकर सदैव संगति नहीं छोड़ते और न ही धोखेबाज और चापलूस होते हैं ।
जहां अन्य व्यक्ति राजा के समक्ष उन्नति के लिए आगे – पीछे विचरण कर समय आने पर परछाईं के रूप में भी दिखाई नहीं देते , वहां उच्च वंशज वालों का आचरण एक जैसा होता है ।
अतः राजा या नेतागणों को चाहिए कि ऐसे पुरुषों की नियुक्ति में सदैव नीच या ओछे लोगों को प्रविष्ट न करें । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः ।
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः ।।
भावार्थ– प्रलय के वक्त समुद्र अपनी मार्यादा को छोड़ देता है और किनारे को त्याग देता है , लेकिन सच्चे सजन भक्त मनुष्य प्रलय की भांति अचानक विपत्ति आने पर भी अपने मान – मर्यादा को नहीं त्यागते ।
व्याख्या– आचार्य चाणक्य जी ने सागर की तुलना में धीर – गम्भीर व्यक्तित्व वाले मनुष्य को ही श्रेष्ठतम बताया है।
कहते हैं कि सागर को सदैव जगत् गम्भीरता का प्रतीक मानते हैं , लेकिन वह भी प्रलय आने पर या ज्वारभाटा आने पर अपनी मर्यादा को भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल – थल को एकाकार कर देता है ।
परन्तु साधु या श्रेष्ठतम व्यक्ति संकटों का पहाड़ टूटने पर भी सभी चोटें अपने कलेजे पर लेकर अपनी मर्यादा का संग नहीं छोड़ते , बदले में अपनी जान की बाजी भी लगा देते हैं ।
अतः साधु पुरुष सागर से भी महान व्यक्तित्त्व संजोये होता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः।
भिनत्ति वाक्शल्येन अदृष्टः कण्टको यथा।।
भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक का मूल अर्थ यह है कि बुद्धिमान मनुष्य को अज्ञानवश कभी भी मूर्ख की संगति का अनुसरण नहीं करना चाहिए , क्योंकि मूर्ख मनुष्य शूल की तरह हृदय में पीड़ा पहुंचाने के समान होता है ।
व्याख्या– इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य समान द्विपदी होने पर भी मूर्ख मनुष्य पशु के समान जैसा होता है ।
क्योंकि जिस प्रकार से पशु मतिहीन होता है , उसे उचित – अनुचित का ज्ञान भी नहीं होता , उसी प्रकार मूर्ख को भी कहने – करने योग्य और करने – कहने योग्य का कुछ भी पता नहीं होता ।
अत: मूर्ख की संगति कदापि नहीं करनी चाहिए ।
जिस प्रकार से पैर में लगा कांटा , पैर की त्वचा में घुसकर या छिपकर या अदृश्यमान होकर पीड़ा देता है ठीक उसी प्रकार से मूर्ख मनुष्य की गन्दी वाणी , अभद्र गाली – गलौच के द्वारा मनुष्य को दुखी करके पीड़ा देता है यानि उसकी बातें सज्जन व्यक्तियों को शूल के समान सदैव चुभती हैं ।
अतः मूर्ख व्यक्ति का त्याग करना ही बेहतर है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

रूपयौवनसम्पन्नाः विशालकुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ।।
भावार्थ– यहां आचार्य चाणक्य द्वारा विद्या के गुणों की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार से सुन्दर फूल भी किसी – किसी के आकर्षण का पात्र नहीं होते , उसी प्रकार से विद्या से पृथक् अच्छे वंश जाति वाले सुन्दर एवं यौवन युक्त सम्पन्न व्यक्ति भी सभी के लिए आकर्षण युक्त नहीं होते हैं ।
व्याख्या– इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने अपना मत प्रकट किया है कि जिस प्रकार केसू के गन्धयुक्त खून के रंग जैसे फूल सुन्दर शोभायमान होते हुए भी मान – सम्मान नहीं प्राप्त कर पाते , उसी प्रकार रूप – यौवन सः पन्न युक्त अच्छे वंश तथा जाति में पैदा होने वाला व्यक्ति भी विद्या से पृथक होने र भी समाज में शोभा का पात्र नहीं बन पाता । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।।
भावार्थ– इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार कोकिला की वाणी ही उसका मोहित रूप होती है । कुरूपों का मोहित रूप विद्या होती है , तपस्वियों का मोहित रूप उनका माफ करने सम्बन्धी मोहित गुण है , उसी प्रकार से स्त्री का मोहित रूप उसका पतिव्रता धर्म है ।
व्याख्या– कोयल काली – सी एक कुरूप चिड़िया का नाम है , कि उसकी कर्णप्रिय वाणी इस जगत् में आत्म – सम्मान और स्नेह प्रदान करने वाली है ।
कुरूप व्यक्ति अपनी विद्या के कारण ही जगत् में सम्मान पाते हैं , तप करने वालों के तप की प्रशंसा उनके क्षमा या माफी सम्बंधित गुणों से होती है , इस प्रकार से स्त्री की प्रशंसा भी उसके रूपवान् होने से नहीं , बल्कि पतिव्रता के गुण से होती है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

त्यजेदेकं कुलस्याऽर्थे ग्रामस्याऽर्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्याऽर्थे आत्माऽर्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।
भावार्थ – आचार्य चाणक्य के अनुसार वंश के लिए व्यक्ति का देहात के लिए वंश का , शहर के लिए देहात का और आत्म के उत्थान हेतु धरा को छोड़ देना चाहिए ।
व्याख्या – यह कल्याण हेतु भाव के विस्तार के अनुरूप सूक्ष्म विस्तार को बड़े – विस्तार के लिए छोड़ देने का दिशा – निर्देश दिया गया है ।
यदि वंश की भलाई के लिए एक मनुष्य को छोड़ देना पड़े ।
गांव के भले के लिए वंश को छोड़ देना पड़े , शहर के लिए गांव को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए ।
यही नहीं अपनी आत्मा को कल्याणकारी निर्मित कर उसे विकसित करने हेतु यदि समस्त धरा ( सम्पूर्ण भोग , रिश्ते , मोह , माया , इच्छा , अभिलाषा , मनोरथ आदि ) को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए क्योंकि त्याग से बड़ा महत्त्व और कोई नहीं है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम् ।
मौने च कलहो नास्ति नास्ति जागरिते भयम् ।।
भावार्थ – आचार्य चाणक्य ने कहा है कि परिश्रम ( उद्योग ) से निर्धनता नहीं रहती , भगवान के नाम का जप करने से पाप नहीं लगता , चुप रहने से कलह नहीं होता और जागृत होने पर डर नहीं रहता ।
व्याख्या – उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने बताया है कि मेहनत करने वाले मनुष्य के यहां निर्धनता वास नहीं करती यानि वह सदैव ही सुखी सम्पन्न बना रहता है ।
ईश्वर या परमात्मा के नाम को लेने से पाप नष्ट हो जाते हैं । सदैव खामोश रहने से लड़ाइयां नहीं जन्म लेती और जागने पर भय जन्म नहीं लेता , व्यक्ति को इन सभी बातों का स्मरण रखना चाहिए । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः ।
अतिदानात् बलिर्बद्धो अति सर्वत्र वर्जयेत् !!
भावार्थ -इस श्लोक में आचार्य चाणक्य के द्वारा कहा गया है कि सर्वाधिक सुन्दरी होने के कारण से सीताजी का अपहरण हो गया, अति घमंड के कारण से रावण का सर्वनाश हो गया, अति दानशीलता के कारण से महाबली को शर्मसार होना पड़ा, इसलिए किसी भी कार्य की अति नहीं करना चाहिए।
व्याख्या – अत्यधिक सौंदर्ययुक्त होने के कारण सीताजी का अपहरण हुआ।
बलि नामक दैत्यों के शक्तिशाली राजा थे, वे बड़े दानवीर थे, उनके दान की भी अति हो गई।
वे सभी कुछ दान करने में भी हिचक महसूस नहीं करते थे।
सुना है कि वे इतने शक्तिसम्पन्न थे कि उनका अति फैला हुआ था।
वामन नामक एक बौना ब्राह्मण यज्ञ के वक्त दान लेने पहुंचा और उसने दान में तीन कदम भूभाग मांगा ।
इस अविचित्र मांग या दान को सुनकर शुक्राचार्य ने बली को सचेत किया कि वह दान या वचन न प्रदान करे ।
किन्तु दानशीलता के नशे में चूर होकर या महादानी होकर बली ने इस निर्देश की ओर ध्यान नहीं दिया ।
बौने ब्राह्मण ने अचानक पलक झपकते ही अपना विशाल रूप बना लिया और एक कदम में ही तीनों लोक भ्रमण कर लिये , दूसरे पग में बली के समस्त पुण्य कर्मों को जान लिया , तीसरे पग की पूर्ति करने में बली नाकाम हो गए और अपने मस्तक को सम्मुख कर दिया ।
बली को शीश झुकाकर लज्जित होना पड़ा , आचार्य चाणक्य ने ऐसे उदाहरणों को पेश कर यह बताया है कि किसी भी कार्य में अति करना लज्जित होने , अपमान सहने या वित्तिष्ट हो जाने के कारण से होता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

कोऽहि भारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् ।
को विदेशः सविद्यानां कोऽप्रियः प्रियवादिनाम् ।।
भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि ताकतवर के लिए भार उठाना क्या ? व्यपारी के लिए दूर जाना क्या ? विद्वानों के लिए विदेश जाना क्या ? प्रिय वाणी के लिए पराया क्या ?
व्याख्या– यहां पर आचार्य चाणक्य ने भिन्न – भिन्न क्षेत्रों या स्थानों के लिए सत्य को स्पष्ट बताया है , जिसमें शक्ति वास करती है , वह भार को देखकर भय नहीं खाता ।
व्यापारी को जहां कहीं लाभ मिलता है , वह कभी दूर से नहीं घबराता ।
व्यापारी को जहां प्रत्यक्ष रूप में लाभ मिलता है , वह उसी ओर चल पड़ता है , ठीक विद्वान पुरुष के लिए प्रत्येक प्रदेश अपने देश जैसा ही लगता है और प्रिय व कर्णप्रिय वाक् शक्ति वाले के लिए कोई भी बेगाना ( अहित की इच्छा रखने वाला ) नहीं होता ।
अपनी मधुरतम वाणी एवं कुशलतम आचरण से वह गैरों को अपना बना लेता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

एकेनाऽपि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा।।
भावार्थ– इस श्लोक में आचार्य चाणक्य द्वारा कहा गया है कि एक ही सुन्दर खुशबू से परिपूर्ण फूलों वाला पेड़ समस्त वनों को खुशबूदायक निर्मित कर देता है , ठीक इसी प्रकार से सुपुत्र से परिपूर्ण एक ही वंश समस्त समाज में आनन्द और हर्ष उल्लास को सृजित कर उसे उन्नतशील बनाता है ।
व्याख्या – जिस प्रकार सुगन्धि युक्त फूलों वाला पेड़ पूर्ण उपवन को महका देता है , ठीक उसी तरह से गुणों से परिपूर्ण एक ही गुणी पुत्र समस्त वंश को दीपक की तरह जगमग कर देता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना ।
दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं तथा ।।
भावार्थ – सूखा ढूंठ वृक्ष अग्नि को आमंत्रित कर देगा तो वह स्वयं जलेगा ही । कुपुत्र से कुल का नाश होता है । अत : कुपुत्र को हमेशा ही अपने से दूर रखें ।
व्याख्या – उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि एक ही खिजांयुक्त वृक्ष अग्नि को बुलावा देकर वनों में डालियों के घर्षणमात्र से अग्नि की चिनगारी उठती है ।
उजड़ा वृक्ष स्वयं जलने लगता है और दावानल की भयंकरता वन को जलाकर भस्म करती है ।
समस्त वन को जला देता है , ठीक इसी प्रकार से कुपुत्र से परिपूर्ण एक ही वंश समस्त समाज (ग्राम) को नष्ट कर देता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

एकेनाऽपि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना ।
आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ।।
भावार्थ – इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि एक ही सुपुत्र जो विद्या से परिपूर्ण और सज्जन हो , समस्त वंश को प्रकाशित करता है , जैसे कि एक ही चन्द्र सारे जग को प्रकाशमान कर देता है ।
व्याख्या – अंधेरी रात के समस्त कष्टों का निवारण करके एक ही चन्द्रमा अपने किरणों से धरा को सुखप्रद बनाता है ।
इसी प्रकार ठीक सजन विद्वान् और सद्गुणों से परिपूर्ण एक ही पुत्र वंश की अज्ञानता और कष्टों को मिलाकर सभी को सुख – सागर बनाते हुए समस्त संसार को प्रकाशित कर देता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः ।
वरमेकः कुलाऽऽलम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम् ।।
भावार्थ – अत्यधिक अवगुणी पुत्रों की अपेक्षाकृत एक ही गुणवान पुत्र वंश के लिए हितकर होता है ।
व्याख्या – आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अनेक पुत्रों को जन्म देने से क्या फायदा यदि वे शोक और सन्ताप के कारण आधार बन जाएं , कुल को समस्त सुख प्रदान करने वाला एक ही सुपुत्र समस्त वंश को शुभ फल की छाया में शयन करता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ।।
भावार्थ– इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य का मत है कि औलाद को पांच वर्ष की उम्र तक दुलार , लाड – प्यार करना चाहिए , उसके पश्चात् दस वर्ष तक ( छह से लेकर पन्द्रह वर्षों तक ) लाड़ – प्यार के साथ दण्डित भी करना चाहिए । परन्तु सोलहवें वर्ष में और उसके पश्चात् उससे मित्रवत आचरण करना चाहिए ।
व्याख्या – इस श्लोक का वर्णन आचार्य चाणक्य का नहीं , वरन् मनुस्मृति की नीति है ।
इसमें माता – पिताश्री के कर्तव्य को दिशा – निर्देश किया गया है ।
पांच वर्षों तक बालक मासूम होते हैं , परन्तु उन्हें प्यार – दुलार से समझाना हितकर है , इस तरह उनके मन में प्रेम और अपनेपन का विश्वास पनपता है ।
इसके पश्चात् पन्द्रह वर्षों तक उनका चरित्र निखरता है ।
इस समय अंकुश और दृढ़ होना आवश्यक होता है, किन्तु जब वह सोलहवें वर्ष में आ जाए तो तभी से अपने बालक के संग मित्रवत आचरण ही करना हितकर होता है, क्योंकि वे नासमझ नहीं रह जाते हैं, कठोरता का आचरण उनको विद्रोही या हठी बना देता है। (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे ।
असाधुजनसम्पर्के यः पलायति स जीवति ।।
भावार्थ – आचार्य चाणक्य ने कहा है कि उपद्रव या दंगा , दूसरों के द्वारा रचित षड्यंत्र , अकाल , भयानक स्थिति बन जाने पर दुर्जनों के सम्पर्क से दूर भाग जाने वाले मनुष्य ही जीवित रहते हैं ।
उपसर्ग का शाब्दिक अर्थ कुष्ठ या छूत वाले घातक रोग या त्वचा रोगों से है ।
व्याख्या – आचार्य चाणक्य ने कहा है कि प्राकृतिक अतिवृष्टि , महामारी या वैरियों का आक्रमण , अकाल , दुष्ट लोगों का संगठित होना – ये समस्त ऐसी अवस्थाएं हैं कि उनमें हिम्मत पैदा करके अपने स्थान पर वास करते रहना मूर्खता करने के अलावा कुछ भी तो नहीं ।
ऐसे मूर्खतापूर्ण कृत्य करने वाला व्यक्ति मारा ही जाता है ।
बाढ़ या सूखा अतिवृष्टि इस बात को नहीं पहचानती कि आपमें साहस कितनी मात्रा में विद्यमान है ।
वह तो तीव्र गति से बहाकर ले ही जाएगी ।
शत्रु के आक्रमण के वक्त , अकाल के वक्त तथा दुष्टतम व्यक्तियों के संगठित होने के वक्त उस जगह से अपने आपको स्वतः ही पृथक् कर लेना बुद्धिमानी है , जो दुष्ट व्यक्ति अत्यधिक संख्या में संगठित होकर आपको कष्टप्रद करने के लिए खड़े हो गए हैं । उनसे बचाव की मुद्रा बना लेनी चाहिए । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते ।
जन्म – जन्मनि मत्र्येषु मरणं तस्य केवलम् ।।
भावार्थ – आचार्य चाणक्य के अनुसार जो व्यक्ति धर्म , अर्थ , काम व मोक्ष – इनमें से किसी एक के लिए भी प्रयास नहीं करता , वह जन्म – जन्म तक ही केवल जग में मरने हेतु आता है ।
व्याख्या– पैदा होना खाना – पीना और मर जाना — यह तो सिर्फ पशु प्रवृत्ति है , जो ज्ञान , बुद्धि – विवेक और अभिलाषाएं रखता है , जो मनुष्य इनका उपयोग कर उपर्युक्त चारों कार्यों में से एक का भी पालन कर लेता है , वही सही अर्थ में मनुष्य है , जो चारों के लिए प्रयासरत है , वह महामानव है और जो किसी एक के लिए भी प्रयत्नशील नहीं है , वह तो व्यर्थ ही जन्म लेता है । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)

मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम् ।
दम्पत्येः कलहो नाऽस्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।।
भावार्थ– इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस राज्य में मूों का मान – सम्मान नहीं होता , यानि मूर्ख व्यक्ति को प्रधानता जैसा विशेष स्थान नहीं दिया जाता ।
अन्न संचित और सुरक्षित रहता है , जहां पति – परमेश्वर और पत्नी में कभी कलह नहीं होता । वहां लक्ष्मी बिना आमंत्रण के निवास करती है , उन्हें किसी प्रकार की भी कमी नहीं होती ।
व्याख्या – कहने का अर्थ है कि यदि अपने देश की समृद्धि और प्रजा की सन्तुष्टि अभीष्टतम है , तो मूर्तों के स्थान पर गुणनशील मनुष्यों को विराजमान करके आदर मान – सम्मान करना चाहिए ।
दैविक आपदाकाल के समय या विपत्ति काल में अन्न का भण्डार अवश्य ही करना चाहिए तथा गृह – गृहस्थी में झगड़े लड़ाई का निवास कदापि नहीं होना चाहिए ।
जहां विद्वानों का मान – सम्मान और मूर्यों का तिरस्कार सम्भव होगा तो स्वतः अन्न की वृद्धि होगी तथा पति परमेश्वर और पत्नी में सद्भावना बनी रहेगी तथा गृहस्थी के गृहों या देश में संपत्ति उत्तरोत्तर वृद्धि हो जाएगी , इसमें कोई शंका नहीं । (Chanakya Niti In Hindi – Moral Story)
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मुझे नयी-नयी चीजें करने का बहुत शौक है और कहानी पढने का भी। इसलिए मैं इस Blog पर हिंदी स्टोरी (Hindi Story), इतिहास (History) और भी कई चीजों के बारे में बताता रहता हूँ।