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चाणक्य नीति अध्याय : 2 (Adhyay Two- Chanakya Niti In Hindi)
Adhyay Two- Chanakya Niti In Hindi

चाणक्य नीति अध्याय : 2 (Adhyay Two- Chanakya Niti In Hindi)

अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलुब्धता ।
अशौवत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ।।

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि स्त्रियां अपने मूल स्वभाव से सदैव असत्य बोलने वाली , अत्यन्त साहसी , छल – कपट में रत , धूर्तता पूर्ण व्यर्थ बातें करने वाली , अत्यन्त लोभी प्रकृति , गंदी और दया की माया से पृथक् होती हैं यह संसार में विख्यात है ।

व्याख्या – स्त्रियां मूलतः अपने स्वभाव से असल्य वाक्य बोलने वाली , अत्यधिक साहस धारण करने वाली , धोखे में रखने वाली , धूर्ततापूर्ण वार्तालाप में रत रहने वाली , लालचपूर्ण प्रकृति , फिसलू , अशुद्ध और दया की माया से अलग होती हैं अर्थात् नारियों में अपने वंशजों से ही या जन्म से ही झूठ बोलने की प्रवृत्तियां पायी जाती हैं , अपने दुःसाहस से मूल कारण से वे कोई भी ऐसा कार्य कर सकने में सक्षम हैं , जिस पर एकाएक यकीन नहीं किया जा सकता है ।

उनके रूप , माया जाल तथा छल – कपटी प्रकृति के विषय में जग में सभी कुछ उजागर है , वे मूर्ख , लोभी , गंदी तथा निर्दयी भी होती हैं , ऐसी स्त्रियों के स्त्री कारकतत्त्व को आंखें बंदकर सहर्ष स्वीकार कर लेना किसी भी व्यक्ति के लिए कोई अक्लमंदी नहीं है।

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वराङ्गना । 
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ।।

भावार्थ- इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि खाने योग्य पदार्थों का सुलभ और सामर्थ्यवान होना भोग – विलास की ताकत के साथ – साथ उसकी पूर्ण तृप्ति हेतु रूपवती स्त्री का प्राप्त होना और धन – संपत्ति के भी होने पर उसके उपभोग करने के संग – संग दान की प्रवृत्ति का भी होना इस बात का द्योतक है कि पूर्व जन्म के संयोग के मूल कारण से ही या मनुष्य के पूर्व जन्म के तप से ऐसे फल की प्राप्ति होती है । 

व्याख्या – व्यक्ति के जीवन में अनुभव से देखने पर ज्ञान द्वारा पाया है कि व्यक्तियों के पास खाने – पीने के योग्य पदार्थों की कहीं कोई कमी नहीं , उनके पास खा – पीकर पाचन शक्ति नहीं होती , आप इस बात को इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं , जिसके पास चने के दाने हैं , पर दांत नहीं और जिसके पास दांत है , उसके पास चने के दाने नहीं अर्थात् आनन्दमय होने के लिए दांत और चने दोनों महत्त्वपूर्ण हैं , सामान्य से अर्थों में बलशाली धनवान् व्यक्ति प्रायः ऐसे रोगों से ग्रसित रहते हैं , जिन्हें मूंग की दाल पच नहीं पाती , परन्तु जो हष्ट – पुष्ट तगड़े पाचन शक्ति स्वस्थ प्रकृति वाले होते हैं , उनके पास खाने – पीने योग्य कुछ भी नहीं होता ।

इस प्रकार अनेक व्यक्तियों के पास धन – दौलत ऐश्वर्य की प्राय : कभी कमी नहीं होती , मगर उनमें उसे उपभोग करने या दान दे देने की प्रवृत्ति कदापि नहीं होती , ये बातें जिन व्यक्तियों में समान रूप से विद्यमान रहती हैं , आचार्य चाणक्य जी उसे पूर्व जन्म का फल मानते हैं ।

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दाऽनुगामिनी । 
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ।।

भावार्थ- इस श्लोक में वर्णित है कि जिसका पुत्र आज्ञाकारी तथा नारी अपर पति के अनुकूल आचरण युक्त हो , पतिव्रता हो और जिसको प्राप्त धन से ही संतोष या उसके पास जितना भी धन है , उसी में संतुष्टि रखता हो , ऐसे मनुष्य के लिए स्वा इसी धरती पर होता है । 

व्याख्या – पुत्र का आज्ञाकारी होना तथा स्त्री का पतिभक्ति में लीन होना और मनुष्य का धन के प्रति अत्यधिक अभिलाषी होना या मन में असन्तोष न जन्म लेने से ही धरती पर स्थित स्वर्ग के मिलने जैसा है ।

ऐसा मानकर विश्वास किया जाता है कि धरती पर स्वर्ग शुभ या तपस्या पूर्ण पुण्य कार्यों के अर्जित होने से ही मिलता है , उसी प्रकार इस जगत् में उपर्युक्त तीन प्रकार के सुख भी व्यक्ति को उसके पुण्य कर्मों के आधार पर कारक तत्त्व पुण्य कर्मों से ही मिलते हैं ।

जिस व्यक्ति को ये तीनों प्रकार के सुख मिल जाते हैं उसे अपने आपको इस धरती क श्रेष्ठतम भाग्यशाली व्यक्ति समझना चाहिए ।

इस जगत् में रचित कुछ चीजें ऐसे होती हैं जो मनुष्य के दु : ख का कारण बन जाती हैं ।

परन्तु असलियत में सभी मनुष्य दृष्टिकोण के आधारभूत अन्तर ही तो हैं , जो मनुष्य अपने पुत्र के आज्ञापालक होने और नारी के पतिव्रता होने पर भी अपने द्वारा कमाए धन से सन्तुष्टि प्राप्त नहीं करता है , वह सदैव दुखों के चक्र में फंसकर रह जाता है ।

उसके मन में सदैव तनाव बसेरा किए रहता है ।

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः । 
तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निर्वृतिः ।।

भावार्थ – यदि पुत्र हो तो पिता का आज्ञकारी भक्त हो या माता – पिताश्री के दुःखों का निवारण करने में सक्षम हो या दुःख दूर करने में सहायक हो , वही सच्चा पुत्र कहलाने का अधिकारी होता है।

ठीक इसी प्रकार सन्तान को पालन – पोषणकर्ता तथा उनके सुख – दुःख में ध्यान रखने वाला ही सच्ची परिभाषा में पिताश्री कहलाने का सक्षम अधिकारी है।

अंधा विश्वास करने योग्य व्यक्ति को ही श्रेष्ठतम मित्रभक्त या सखा कहा जाता है और अपने पति परमेश्वर को सच्चा सुख प्रदान करने वाली नारी को ही सच्चा प्रथ प्रदर्शक माना गया है । 

व्याख्या- इस जगत् में रिश्तों पर आधारभूत सम्बन्ध के प्रकार या श्रेणियां तो अनेक हैं , परन्तु सबसे निकट श्रेष्ठतम सम्बन्ध पिता , पुत्र , पत्नी , माता , बहन के रूप में अत्यधिक जन्म लेते हैं , इसलिए अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है , कि माता – पिताश्री की सेवा में तत्पर न रहने वाली सन्तान की परिभाषा को जानना ही व्यर्थ है ।

इस प्रकार से अपनी सन्तान तथा परिवार का भरण – पोषण का दायित्व निभाने वाला ही श्रेष्ठतम पिता होता है तथा श्रेष्ठतम मित्र भी उस व्यक्ति को माना जा सकता है , जहां पर मित्रता में कहीं भी अविश्वास का कोई भी अंश विद्यमान न हो अपने आचरण अनुकूल सुख प्रदान कर वशीभूत कर देने वाली सच्ची पवित्र विशाल हदय वाली नारी ही श्रेष्ठतम पली कहला सकती है ।

इसका यही अर्थ है कि जान और रिश्तों के सम्बन्ध के सहारे एक दूसरे से जबरन जुड़े रहने का कोई आधार नहीं होता , सम्बन्धों के रिश्तों की वास्तविकता तो तभी संभव होती है ।

जब सभी नर – नारी अपने कर्तव्यों का बोध करते हुए एक – दूसरे से बंधकर बनाने का प्रयत्न जीवन भर करते रहें ।

इसका सच्चा अर्थ यह होता है कि पुत्र को माता पिताश्री की जीवन भर सेवा करने में तत्पर रहना चाहिए ।

पिताश्री का दायित्व बनता है कि अपने परिवार का भरण – पोषण उपयुक्त ढंग से भली प्रकार से करें ।

सच्चे मित्र का दायित्व बनता है कि स्वयं पर भरोसा करने वाले व्यक्ति का विश्वास जीवन भर जीतना और स्त्री का दायित्व बनता है कि अपने पति को जीवन भर दुःखों के भंवर से निकालकर बेल की भांति चढ़कर सुखी बनाना ।

इन दायित्वों की पूर्ति किए बिना रिश्तों के सम्बन्ध से कोई लाभ नहीं होता है ।

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।। 

भावार्थ – श्लोक में आचार्य चाणक्य द्वारा कहा गया है कि स्वयं के उपस्थित न रहने पर किसी व्यक्ति द्वारा किसी से निंदा करना या पीठ पीछे रहकर निंदा या बुराई करना अथवा व्यक्ति के किसी भी कार्य में विघ्न डालना और मुंह पर या उसके समक्ष मीठी चिकनी – चुपड़ी बातें करना सर्वथा उचित नहीं है।

ऐसा कुत्सित कार्य करने वाले मित्र को उसी प्रकार छोड़ देना चाहिए , जिस प्रकार ऊपर दूध और नीचे विष से भरे पात्र को उठाकर तुरन्त बाहर फेंक देते हैं ।

व्याख्या – स्वयं के समक्ष मीठी चिकनी – चुपड़ी बातें बनाने वाले और पीठ पीछे काम का सत्यानाश करने वाले , निंदित रस का पान करने वाले व्यक्ति का सम्बन्ध कदापि नहीं रखना चाहिए ।

सच्चा श्रेष्ठतम मित्र वही होता है , जो अपने मुख पर ही अपनी जुबान से कड़वी खरी – खोटी वाली बातें सुना दे , परन्तु पीठ के पीछे से निंदा का प्रहार न करे और न ही काम में विघ्न डालकर बिगड़ने दे ।

और निंदा भी न सुने , इसके बिल्कुल उल्टे जो व्यक्ति मुख पर बड़ाई का मुखौटा धारण करता है और आंखों से ओझल होने पर अहित कार्यों में लीन हो जाता है ।

ऐसे व्याख्या व्यक्ति को कदापि मित्र न समझकर अज्ञात शत्रु के समान रूपवाला समझना चाहिए ।

जिस प्रकार विष से भरे हुए पात्र में दुग्ध रूपी अमृत तैरता रहता है ।

मगर फिर भी उसे उठाकर फेंक दिया जाता है , ऐसे ही मित्रों की पीठ में छुरा घोंपने वाले के समान समझना चाहिए , जो व्यक्ति ऐसे मित्र को विश्वास का पात्र समझता है या सेवन करता है , उसकी मृत्यु ठीक उस प्रकार से समझनी चाहिए जैसे विष से भरे पात्र के मुख पर थोड़ा – सा अमृतरूपी दूध देख उसको पान करने वाले की होती है ।

न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत् । 
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत् ।।

भावार्थ – इस श्लोक में आचार्य चाणक्य के मतानुसार कि बुरे मित्र पर विश्वास की दृष्टि बनाना तो दूर अच्छे मित्र पर भी अंधा भरोसा ना किया जाए , क्योंकि उससे इस बात का अंदेशा सदैव बना रहता है कि किसी बात पर क्रोधित होकर वह मित्र समस्त गूढ रहस्यों के भेद न खोल दे ।

व्याख्या – आचार्य चाणक्य के श्लोक का वास्तविक मार्गदर्शन यह है कि व्यर्थ के मित्रों को तो कदापि विश्वासपात्र नहीं बनाना चाहिए , परन्तु आप जिसको सच्चे मित्र की संज्ञा देते हैं , उसे भी भली – भांति सोच – विचारकर अपने राजरूपी रहस्य , कपाट को या अपने आचरण को कभी भी व्यक्त नहीं करना चाहिए ।

क्योंकि इस बात की शंका सदैव बनी रहेगी कि किसी चुभनी बात से क्रोधित होकर समस्त गुप्तराज न खोल दे ।

उस पर इस बात का हमेशा सन्देह बना रहता है कि मित्र के रहस्य को प्रकट कर धमकी देकर कहीं अनुचित कार्य करने हेतु विवश न कर दें ।

अत : आचार्य चाणक्य का पूर्ण विश्वास है कि जिसे आप सबसे अच्छा मित्र समझते हैं , उसे भी अपने सभी अनगिनत दोषों या बुरे कार्यों के विषय से परिचित नहीं कराना चाहिए ।

कुछ महत्त्वपूर्ण बातों के विषय में राज रहस्य बनाए रखना सर्वथा उचित है । बुरे कपटी मित्र के उदर में किसी बात का पचना कैसे भी असम्भव है ।

मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् । 
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चाऽपि नियोजयेत् ।।

भावार्थ – इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि यदि कार्य से पूर्व विचार द्वारा कोई योजना मन में निर्मित हो तो उसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए या उस विचार को साकार रूप देने तक उसे गुरु मंत्र की भांति मन में ही विद्यमान रखना चाहिए । 

व्याख्या – आचार्य चाणक्य के इस कथन में बड़ा विशाल रहस्य समायोजित है , मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि आप जिस कार्य के लिए अधिक चिन्तन और मनन करोगे मौन ही उसको कार्य रूप में परिणत करने का यत्न करेगा , उसमें सिद्धि प्राप्त करने का अवसर भी निश्चित होगा ।

इसका एक पहलू यह भी है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी गुप्त योजना को कार्य रूप देने से पूर्व किसी दूसरे के सम्मुख कह देता है तो हो सकता है कि दूसरा व्यक्ति उस सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करके अपने आप ही उस दृष्टिकोण से शुरूआत करे और मूलरूप से जिस मनुष्य ने गुप्त योजना निर्मित की थी , सिर्फ देखता ही रह जाए ।

यह भी संभव है कि गुप्त योजना निर्मित करने वाले व्यक्ति गुप्त योजना के भेद खुल जाने से संकटों के भंवर जाल में फंस जाएं ।

एक आशंका यह भी है कि दोष या कमी निकालकर गुप्त योजना निर्मित करने वाला व्यक्ति निराश होने के लिए विवश कर दिया जाए और वह इस भंवर जाल में फंसकर कोई कदम ही न उठा पाए , इन सभी बातों को जानते हुए आचार्य चाणक्य यह सलाह देते हैं कि अपने मन से संजोयी किसी भी नई गुप्त योजना को निर्मित रूप में लाने से पूर्व कदापि प्रकट नहीं होने देना चाहिए ।

योजना को अमल लाने से पूर्व उसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना ही योजना निर्मित करने वाले के हित में होता है ।

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टातूकष्टतरं चैव परगेहनिवासनम् ।।

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अनेक अनर्थो को मूल जड़ होने के कारण से मूर्खता बहुत ही पीड़ा प्रदान करती है , इस प्रकार जवानी भी कष्टप्रद होती है , परन्तु दूसरे मनुष्य के गृह में किसी मजबूरी के कारण से रहना भी कम कष्टकारी कार्य नहीं है ।

व्याख्या – बुद्धिहीन या मतिभ्रष्ट मनुष्य को सही गलत की पहचान या ज्ञान न होने से सदैव अपमानित और दण्डित जैसे दवा का कड़वा बूंट पीना पड़ता है ।

इसलिए सदैव अनुभव से कहा गया है कि मूर्ख मनुष्य को इस बात का ज्ञान भी नहीं होता कि कौन – सी बात उचित है या अनुचित ।

ठीक इसी प्रकार जवानी भी मूर्ख की तरह बुराइयों की मूल खोखली जड़ है , अनेक जिज्ञासु व्यक्तियों ने कहा है कि यौवन अन्धा मनचला और दिवाना होता है , यौवन के दिनों में मनुष्य काम के आवेग में अपना दिमागी सन्तुलन गंवा बैठता है , उसे अपनी यौवन क्षमता पर गलत विश्वास होता है , अपने अहंकार से वह यौवन भंवर में इस कदर डूब जाता है , कि वह अपने समक्ष किसी को कुछ भी नहीं समझता ।

यौवन शक्ति को विवेकहीन और निर्लज्ज दोनों प्रकृति जैसा बना देता है , जिसके कारण से घोर में पा जाता है , आचार्य चाणक्य की राय है कि सभी दु : खों से महा : दुख इस बात का होता है कि मनुष्य को मजबूरीवश किसी और के गृह में रुकना पड़े । दूसरे के गृह में रहने वाला मनुष्य दूसरे की ही कृपादृष्टि पर रहता है ।

उसे गृह की बात में उस गृह की व्यवस्था का पालन करना पड़ता है ।

जहां पर वह रह रहा है , इस प्रकार से उसकी आजादी पर प्रतिबन्ध लग जाता है और उसे गृहस्वामी की प्रत्येक सही गलत बात का अनुसरण जबरन करना पड़ता है ।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे । 
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।। 

भावार्थ – इस श्लोक में आचार्य चाणक्य का मत है कि प्रत्येक पर्वत की सतह में मणि – माणिक्य रत्न प्राप्त नहीं होते हैं और इसी प्रकार प्रत्येक गज के मस्तक से मुक्तामणि नहीं प्राप्त होती ।

जगत् में मनुष्यों की कमी न होने पर भी अच्छे मनुष्य सभी जगह नहीं मिलते ।

ठीक इस प्रकार से कुछ पेड़ तो हैं , परन्तु सभी जंगलों में चन्दन के पेड़ उपलब्ध नहीं होते ।


व्याख्या- आचार्य चाणक्य के इस श्लोक का मूल यह है कि अनेक पर्वतों में , सतहों में मणि – माणिक्य मिल सकते हैं , मगर सभी पर्वतों की सतहों में नहीं , ऐसा मनुष्यों का विश्वास है कि कुछ गण ऐसे होते हैं जिनके मस्तक में गजमुक्ता विद्यमान होती है , परन्तु सभी गजों में नहीं होती , इस प्रकार धरा पर पर जंगलों या वनों में प्राय : अधिकता ही होती है , परन्तु वनों में चंदन का पेड़ नहीं मिलता , परन्तु सजन सच्चे व्यक्ति भी सभी जगह विद्यमान नहीं होते , ऐसा मनुष्य जो दूसरों के बिगड़े कार्य भी अपने द्वारा बना देता है, जो अपने मन को आध्यात्मवाद की ओर अग्रसर कर लेता है और निःस्वार्थ भाव से लोककल्याण की अभिलाषा करता हो ।

यह सज्जन पुरुष का तात्पर्य समाज की सेवा करने वाले व्यक्ति से है ।

परन्तु ऐसे उसूल आदर्श व्यक्ति भला सभी जगह कहां मिलते हैं ।

पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः । 
नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः ।।

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि बुद्धिमान मनुष्यों को हमेशा ही चाहिए कि अपने पुत्रों का चरित्र निर्मित करने वाले कार्य में संलग्न करे , क्योंकि नीति को भली – भांति समझने वाले , श्रद्धालु तथा नम्र स्वभाव की प्रकृति वाले ही जगत् में पूजनीय बन जाते हैं । 

व्याख्या – आचार्य चाणक्य का श्लोक भाव यह है कि बचपन या होश संभालते ही बालक को ऐसे कार्यों से संयुक्त कर दे , जिससे कि युवा होने पर वह चरित्र में श्रेष्ठ तथा नीति – निपुण बन सके , जिससे जगत् में आदर – सत्कार सदैव बना रहे ।

ऐसा तभी हो सकता है , जब माता – पिताश्री जीवन के आरम्भ से ही सही मार्ग पर उंगली पकड़कर उसके संग चलें या सही मार्ग पर चलने की शिक्षा दें यदि बालक को इसके विपरीत लाड़ – प्यार दुलार करके बिगाड़ दिया गया है तो उसका मूल स्वभाव कदापि परिवर्तित नहीं होगा , अत: आचार्य चाणक्य का दिशा निर्देश है कि माता – पिताश्री यह कर्तव्य पालन है कि वे अपने बच्चे के विकास के लिए सही मार्गदर्शक बनकर उसे मार्गदर्शन करें , उन्हें बुराइयों के पथ से पृथक् रखें और ऐसे कार्यों के दिशा निर्देश दें , जिससे वे शील – सम्पन्न बन सकें।

क्योंकि इससे उनके वंश की वंश मर्यादा सदैव बनी रहेगी , समस्त नेतागण यही कहते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं पर यह बात सत्य है।

परन्तु यह सुनहरा भविष्य तभी सफलता की चोटियों को चूमेगा जब हम अपने बच्चे में अच्छे संस्कारों का बीज रोपण करें , यह बीज उन्हें उचित शिक्षा और सन्मार्ग द्वारा उत्तम फलों वाला वृक्ष बना सकता है ।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । 
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ।।

भावार्थ- इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि ऐसे माता पिताश्री अपने पुत्र के वैरी ही माने जाते हैं , जो उन्हें शिक्षित नहीं करते हैं ।

अशिक्षित पुत्र तथा मनुष्य बुद्धिमान मनुष्यों के समूह में इस प्रकार शोभावान् नहीं होते , जिस प्रकार हंसों के संगठन में बगुला सर्वथा अच्छा प्रतीत नहीं होता । 

व्याख्या – जो माता – पिताश्री अपनी औलाद को शिक्षित नहीं करते वे औलाद के शुभ – चिन्तक एवं प्रथ – प्रदर्शक नहीं कहे जाते ।

एक प्रकार से वे उसके दुश्मन ही होते हैं , यदि वह अशिक्षित पुत्र विद्वानों के संगठन में जाएगा तो जिस प्रकार रंग रूप एक समान होने पर बगुला हंसों के समूह में श्रेष्ठ नहीं प्रतीत होगा उसी प्रकार वह भी शोभा के अनुकूल नहीं होगा ।

आचार्य चाणक्य ने भली – भांति समझाया है कि केवल धन से नहीं बल्कि शिक्षा या कलम का बल ही व्यक्ति को आदर सम्मान प्राप्त कराता है ।

शिक्षा ही मनुष्य को समाज में प्रतिष्ठा – सम्मान का हकदार बनाती है , अत : माता – पिताश्री का उत्तरदायित्व है कि वे औलाद को शिक्षित करने का पूर्ण प्रयास करें ।

ऐसा न करने वाला बन्धु – बान्धवों , औलाद का दुश्मन ही समझा जाएगा ।

लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ।।

भावार्थ — आचार्य चाणक्य का कहना है कि लाड़ – प्यार दुलार से पुत्र तथा शिष्य में अनेक दोष जन्म लेते हैं और डांटना या ताड़ने से उनमें गुणों का चहुंमुखी विकास हो जाता है।

उनके मत में पुत्र और शिष्य दोनों को लाड़ – प्यार और दुलार के बदले डांटना या ताड़न करना चाहिए । 

व्याख्या – आचार्य चाणक्य के अनुसार जहां पर बच्चों की पिटाई या डांट डपट से अनेक समस्त गुण विकसित हो जाते हैं , वहां व्यर्थ के लाड़ – प्यार में अनेक दोष विद्यमान हो जाते हैं।

माता – पिता श्री या गुरुजन बच्चे का ताड़न उनकी दृष्टि से सुधार योग्य बनाना है , जिसमें शिष्य या बच्चा अपने दायित्वों के प्रति सदैव जागरूक बना रहता है , वह इस बात से भयग्रस्त रहता है कि अपने कर्तव्य बोध में जरा – सी असावधानी बरती तो वह दण्ड का भागी बन जाएगा , इसके उल्टे लाड प्यार दुलार में शिष्य या बच्चा इच्छानुसार मनमानी कर उल्टे – सीधे अज्ञानवश अनेक बुरे मार्गों का अनुसरण कर लेता है , जहां आगे चलकर अंधी गली या गहरे कुएं में गिर जाता है, इसलिए आचार्य चाणक्य की सलाह है कि माता – पिता एवं गुरु को अपने पुत्र या शिष्य को इस बात के लिए प्रेरित करे कि उनमें कोई गंदी आदत के शिकार न हो जाए , उनके निवारण हेतु सिर्फ ताड़न ही एक उपाय है , ताकि वे अपने जीवनरूपी पथ के कर्तव्य पालन के प्रति उत्साहित रहें ।

श्लोकेन वा तदर्धेन पादेनैकाक्षरेण वा । 
अबन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययन कर्मभिः ।।

भावार्थ- मानव का जीवन अनमोल होता है , उसका एक – एक दिन महत्त्ववान होता है , इसलिए हर एक दिन को श्रेष्ठ बनाने के लिए स्वाध्याय , दान एवं यज्ञ आदि संस्कार करने चाहिए। 

व्याख्या- इस श्लोक के अनुसार आचार्य चाणक्य का कथन है कि पुरुष को प्रतिदिन कोई न कोई ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए ।

पुरुष को चाहिए कि वह रोजाना ग्रन्थ से कोई न कोई श्लोक का अध्ययन कर , अर्थ समझकर मनन अवश्य करे , पूरा न सही तो आधा ही सही ।

श्लोक के अध्ययन कर दिन को सार्थकता अवश्य प्रदान करे ।

जो पुरुष दिनभर किसी शास्त्र या प्रेरणादायक पुस्तक का एक अक्षर भी अध्ययन नहीं करता है , उस पुरुष को यह समझ लेना आवश्यक है कि उसका वह दिन निरर्थक है ।

इसके अलावा आचार्य चाणक्य के मतानुसार दिन के सार्थक बनाने का द्वितीय उपाय दान करना है , जो व्यक्ति किसी ग्रंथ का अध्ययन नहीं कर सकता है , वह दान करके अपने दिन को श्रेष्ठ बना सकता है , जीवन के प्रत्येक दिन श्रेष्ठ बनाने के लिए तृतीय उपाय कर सकता है ।

परोपकार या यज्ञ या संस्कार कर लेना । बुद्धिमान व्यक्ति यदि तीनों कार्य करने में विवश हो तो किसी एक कार्य के द्वारा ही अपने दिन को श्रेष्ठतम बना सकता है , वैसे महत्त्वपूर्ण यह है कि मनुष्य प्रतिदिन अध्ययन कर दान भी करे और रोजाना कोई न कोई संस्कार योग्य कर्म करने का अपने जीवन में सिद्धान्त बनाए ।

कान्तावियोगः स्वजनापमानः ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा । 
दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निनैते प्रदहन्ति कायम् ।।

भावार्थ – इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जगत् में कुछ कष्ट ऐसे भी होते हैं जिन्हें व्यक्ति अपने समस्त जीवन में न तो भुला ही पाता है और न ही सह पाता है , ये दुख हैं , पत्नी से पृथकता , अपने रिश्तेदार या सगे सम्बन्धी द्वारा मान – सम्मान गंवाना , कर्जदार हो जाना , दुष्ट मालिक का नौकर होना तथा निर्धन बनकर मूों के समाज में वास करना । ये सभी बिना चिता की लकड़ियों की तरह जीवन भर जलाते हैं । 

व्याख्या – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । मनुष्य इस समाज में तभी सुखी रह सकता है , जब उसे अपने जीवन में पत्नी का सहारा बुढ़ापे में लाठी के सहारे की तरह मिलता रहे ।

अपने सम्बन्धी गण या रिश्तेदार व परिवार वालों से यथापूर्वक आदर मान – सम्मान मिलता रहे तथा व्यक्ति पर किसी भी प्रकार का कोई कर्ज न चढ़े या देनदारी न हो ।

यदि वह नौकरी जैसे कार्य में संलग्न हो तो उसका स्वामी भला मानुष हो और स्वयं वह निर्धन न हो यानि उसके कोष में प्रतिदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथासम्भव धनसंग्रह हो ।

पत्नी का जुदा होना , अपनों द्वारा अपमान , कर्ज , बुरे मानुष , स्वामी की नौकरी , दरिद्रता , मूरों के संग वास करना आदि बिना लकड़ी की आग के ही जीवन भर जलाते रहते हैं ।

नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी । 
मन्त्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम् ।।

भावार्थ- इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि तीव्रतम वेग वाली नदी के तट पर पेड़ , दूसरे व्यक्ति के गृह में वासनी स्त्री तथा मंत्री से पृथक् राज्य शीघ्र ही नाशकारक हो जाते हैं , इसमें कोई शंका नहीं । 

व्याख्या – अनुभवों के आधार पर आचार्य चाणक्य ने कहा है कि नदियां वर्षा में भयग्रस्त बाढ़ का कारण बन जाती हैं ।

उनके तट के वृक्ष तो क्या आसपास की गरीबों की बस्तियां भी बह जाती हैं । ठीक इसी प्रकार से स्त्री कब तक दूसरे व्यक्ति के गृह में वास करने से अपनी इज्जत बचा सकती है ।

आचार्य चाणक्य का कथन है , जिस राजा के पास मंत्री नहीं होता , उस राज्य के समाप्त होने में पल भर भी देर नहीं लगती , इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री को दूसरे गृह में कदापि वास नहीं करना चाहिए और राजा के लिए यह जरूरी है कि वह हमेशा श्रेष्ठ मंत्रियों की नियुक्ति करे ।

मंत्री पृथक् राजा जब किसी संकट के भंवर में घिर जाता है तो उसे सच्ची सलाह देने वाले व्यक्तियों की कमी के कारण अनेक तकलीफ उठानी पड़ती है , इस प्रकार से आश्रय से पृथक् स्त्री के लिए भी पर पुरुष द्वारा भोगे जाने का भय बना रहता है , इसमें क्षणमात्र भी शंका नहीं है ।

बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यं बलं तथा । 
बल वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम् ।।

भावार्थ- इस श्लोक के माध्यम से चाणक्य के कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी विद्याबल के कारण ही जीवित है , उसे किसी न किसी अदृश्य शक्ति की आवश्यकता होती है ।

ब्राह्मण की ताकत उसकी विद्यापार्जन में है और राजन् की ताकत उसकी सेना में निहित है , वैश्य की ताकत उसके धन में विद्यमान है और शूद्र की ताकत उसके द्वारा सेवा योग्य कार्यों में छिपी है।

विद्या से पृथक् ब्राह्मण , सैन्यबल से पृथक् राजा , धन से पृथक् वैश्य और सेवा कार्य से पृथक् शूद्र का कोई मूल्यांकन नहीं होता । 

व्याख्या – ब्राह्मण का दायित्व बनता है कि वह विद्या ग्रहण अवश्य करे । जैसे – कैसे भी हो सके , विद्याओं को संग्रह करे ।

राजा को चाहिए कि वह अपनी प्रजा और राज्य दोनों की सुरक्षा के स्थिर सेनाओं का संचालन करे ।

वैश्य या व्यापारी का दायित्व बनता है कि वह धन को संग्रहित अवश्य करे तथा शूद्र का दायित्व है कि वह हृदय से सेवाभाव को अपनाए , इन्हीं समस्त कार्यों में इन चारों वर्णों का हित और अजीम ताकत विद्यमान है ।

आज इस कलयुग में इन सभी बातों का सार्थक होते देखा जा सकता है , भले ही चारों वर्ण पैदाइश के न जाने जाएं तो भी विद्या का दान प्रदान करने वाले गुरुजन को ब्राह्मण ही कहा जाता है ।

उनका दायित्व है कि अनेक विद्याओं का संग्रह करें , भले आज राजाओं का युग नहीं रहा , परन्तु राष्ट्र नेताओं का यह दायित्व बनता है कि राष्ट्र की आन्तरिक सुखप्रद शांति के लिए दृढ़ सेनाएं सीमा पर चौकसी रखें ।

इस प्रकार वैश्य और कृषकों का दायित्व बनता है कि वे धन – धान्य फसल को एकत्रित कर देश को समृद्ध व खुशहाल बनाएं ।

शूद्रों और नौकरी पेशा व्यक्तियों का दायित्व बनता है कि वे देश सेवा करके अपनी मान – मर्यादा में वृद्धि करें ।

निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत् । 
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाऽभ्यागता गृहम् ।।

भावार्थ – इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा कि जिस प्रकार से वेश्या अपने प्रेमी के दरिद्र हो जाने पर उसे त्याग देती है , उससे मिलने , बात करने से आंखें फेर लेती है , पराजित व अपमानित राजा को प्रजा त्याग देती है और जिस प्रकार से उजड़े वृक्ष की शाखाओं पर से पक्षी क्षितिज की ओर उड़ जाते हैं , ठीक उसी प्रकार मेहमान को चाहिए कि भोजन करने के पश्चात् गृहस्थी के गृह को छोड़ दें । 

व्याख्या – आचार्य चाणक्य ने अनुभव के आधार पर कुछ उदाहरण प्रदान कर समझबूझ से दायित्वों के पालन मार्ग पर बल दिया है ।

धन अर्पण करने के कारण वेश्या जिसे अपना प्रेमी मानती है , दरिद्र होने पर अपनी आंखें और राहें दोनों परिवर्तित कर लेती है ।

इस प्रकार ही राजा की प्रजा भी वेश्या की तरह आचरण करती है । ठीक वेश्या की तरह पंछी भी उजड़े पेड़ के ढूंठ पर बसेरा न करके मुंह फेरकर उड़ जाते हैं ।

इसी प्रकार मेहमान को भी चाहिए कि गृहस्थ से मुंह फेरकर साधुवाद के जैसे गृह को छोड़ दे ।

वहां बसेरा न करने की सोचे , नहीं तो सम्भवतः हो सकता है कि उस गृह के स्वामी संकोच को छोड़कर उसे जाने के लिए या अपमान करके जाने के लिए कहें ।

उसे यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मान की रक्षा इसी में है कि भोजन करने के बाद स्वयं ही जाने की हाथ जोड़कर आज्ञा मांग ले ।

गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम् । 
प्राप्तविद्या गुरुं शिष्या दग्धाऽरण्यं मृगास्तथा ।।

भावार्थ – आचार्य चाणक्य का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार दक्षिणा मिलने के पश्चात् पुरोहित या पंडित उस गृह को छोड़कर चल देता है , जिस प्रकार विद्या ग्रहण करने के पश्चात् शिष्य गुरु से विदा लेता है , जिस प्रकार वन में आग लगकर जल जाने पर उस जंगल को त्यागकर पशु – पक्षी भी दूसरे जंगल की पनाह । लेते हैं । 

व्याख्या – आचार्य चाणक्य के कथन के अनसार यदि कोई मनुष्य किसी का सहारा खोज लेता है या अपने उद्देश्य से किसी के समक्ष जाता है तो उस लक्ष्य के पूर्ण होते ही वहां से चले जाना चाहिए ।

जिस प्रकार यजमान का संस्कार सम्बन्धी कार्य के पूर्ण हो जाने के उपरान्त पुरोहित दक्षिण लेकर विदा ले लेता है विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर अपने गृह को लौट जाते हैं , और किसी जंगल के नष्ट या जल जाने पर पशु – पक्षी उस स्थान को त्यागकर दूसरे जंगल की ओर राह करते हैं ।

दुराचारी दुरदृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः । 
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति ।।

भावार्थ – खरबूजे के रंग को देखकर खरबूजा भी रंग बदल लेता है । यदि कोई मनुष्य दुष्ट मनुष्य की संगति में रहेगा तो उसकी कुसंगति का ज्वर चढ़कर बोलेगा ।

दुर्जन की संगति करने से मनुष्य दुखी अवश्य रहेगा । 

व्याख्या- इस श्लोक से आचार्य चाणक्य का मत है कि दुष्टतम प्रकृति वाला , बिना किसी कारण के दूसरों को सदैव नुकसान देने वाला एवं दुष्ट मनुष्य से मित्राचार निभाने वाला श्रेष्ठ व्यक्ति भी नाश को प्राप्त हो जाता है ।

समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते । 
वाणिज्यं व्यवहारेषु दिव्या स्त्री शोभते गृहे ।।

भावार्थ – इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि एक समान जैसे गुण , स्वभाव और आर्थिक स्थिति वाले मनुष्य से ही प्राय : प्रेम सम्बन्ध संतुलित रहता है , इस प्रकार सेवा या नौकरी में जाना हो तो सरकार की नौकरी या सेवा ही श्रेष्ठ रहती है ।

लोक निर्माण में विद्वान व्यक्ति ही जगत् में श्रद्धा का पात्र बनता है । इस प्रकार से रूपवान लज्जा युक्त स्त्री की शोभा भी उसके अपने गृह में ही होती है । 

व्याख्या – प्रायः सभी व्यक्ति अनुभवगत हैं , आपसी मधुर सम्बन्ध व स्नेहपूर्ण आचरण एक समान स्थिति वालों में करना ही उचित है , नौकरी सरकार की ही करनी चाहिए , क्योंकि इसमें बढ़त है ।

वह प्राइवेट नौकरी में कदापि नहीं हो सकती , व्यवसाय में आवश्यक मूलमंत्र यह है कि हंसमुख व्यवहार कुशल ही सम्मानीय होता है , ठीक इसी प्रकार रूपवती सुन्दर नारी के लिए चंचलता में इधर उधर न भटककर अपने गृह में वास करना ही उचित होता है ।

Moral Story In Hindi

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