आँसू | सुमित्रानंदन पंत | हिन्दी कविता

नमस्कार दोस्तों! आज मैं फिर से आपके सामने हिंदी कविता (Hindi Poem) आँसू लेकर आया हूँ और इस कविता को सुमित्रानंदन पंत (Sumitranandan Pant) जी ने लिखा है.

आशा करता हूँ कि आपलोगों को यह कविता पसंद आएगी. अगर आपको और हिंदी कवितायेँ पढने का मन है तो आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं (यहाँ क्लिक करें).

आँसू | सुमित्रानंदन पंत | हिन्दी कविता
आँसू | सुमित्रानंदन पंत | हिन्दी कविता

आँसू – सुमित्रानंदन पंत – हिन्दी कविता (Aanshu – Sumitranandan Pant  – Hindi Poem)

(भादों की भरन) (1)

अपलक आँखों में
उमड़ उर के सुरभित उच्छ्वास !
सजल जलधर से बन जलधार;
प्रेममय वे प्रिय पावस मास
पुन: नयनों में कर साकार;
मूक कणों की कातर वाणी भर इनमें अविकार,
दिव्य स्वर पा आंसू का तार
बहा दे हृदयोद्गार !

आह, यह मेरा गीला गान!
वर्ण वर्ण है उर की कंपन,
शब्द शब्द है सुधि की दंशन;
चरण चरण है आह,
कथा है कण कण करुण अथाह;
बूंद में है बाड़व का दाह !
प्रथम भी ये नयनों के बाल
खिलाये हैं नादान;
आज मणियों ही की तो माल
ह्रदय में बिखर गई अनजान !
टूटते हैं असंख्य उड़गण,
रिक्त हो गया चाँद का थाल !
गल गया मन मिश्री का कन,
नई सीखी पलकों ने बान.

विरह है अथवा यह वरदान !
कल्पना में है कसकती वेदना,
अश्रु में जीता, सिसकता गान है;
शुन्य आहों में सुरीले छंद हैं,
मधुर लय का क्या कहीं अवसान है !

वियोगी होगा पहिला कवि,
आह से उपजा होगा गान;
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
वही होगी कविता अनजान !

हाय, किसके उर में
उतारूँ अपने उर का भार !
किसे अब दूँ उपहार
गूँथ यह अश्रुकणों का हार ! !

मेरा पावस ऋतु सा जीवन,
मानस सा उमड़ा अपार मन;
गहरे, धुँधले, धुले, सांवले,
मेघों-से मेरे भरे नयन!

कभी उर में अगणित मृदु भाव
कूजते हैं विहगों-से हाय !
अरुण कलियों- से कोमल घाव
कभी खुल पड़ते हैं असहाय !

इंद्रधनु सा आशा का सेतु
अनिल में अटका कभी अछोर,
कभी कुहरे सी धुमिल घोर,
दीखती भावी चारों ओर !

तड़ित् सा सुमुखि ! तुम्हारा ध्यान
प्रभा के पलक मार, उर चीर,
गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर
मुझे करता है अधिक अधीर,

जुगनुओं-से उड़ मेरे प्राण
खोजते हैं तब तुम्हें निदान !
धधकती है जलदों से ज्वाल,
बन गया नीलम व्योम प्रवाल;
आज सोने का संध्याकाल
जल रहा जतुगृह-सा विकराल;

पटक रवि को बलि सा पाताल
एक ही वामन पग में-
लपकता है तमिस्र तत्काल,
-धुएँ का विश्व विशाल !

चिनगियों-से तारों को डाल
आग का सा अँगार शशि लाल
लहकता है, फैला मणि ज्वाल
जगत को डसता है तम व्याल !

पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि !
सरल शुक सी सुखकर सुर में
तुम्हारी भोली बातें
कभी दुहराती है उर में;

अगन-से मेरे पुलकित प्राण
सहस्रों सरस स्वरों में कूक,
तुम्हारा करते हैं आह्वान,
गिरा रहती है श्रुति सी मूक !

देखता हूँ, जब उपवन
पियालों में फूलों के
प्रिये! मर भर अपना यौवन
पिलाता है मधुकर को,

नवोढ़ा बाल लहर
अचानक उपकूलों के
प्रसूनों के ढिंग रुक कर
सरकती है सत्वर;

अकेली आकुलता सी प्राण !
कहीं तब करती मृदु आघात,
सिहर उठता कृश गात,
ठहर जाते है पग अज्ञात !

देखता हूँ, जब पतला
इंद्रधनुषी हलका
रेशमी घूँघट बादल का
खोलती है कुमुद कला;

तुम्हारे ही मुख का तो ध्यान
मुझे करता तब अंतर्धान;
न जाने तुमसे मेरे प्राण
चाहते क्या आदान !

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बादलों के छायामय मेल
घूमते हैं आँखों में, फैल !
अवनि औ’ अंबर के वे खेल
शैल में जलद, जलद में शैल.
शिखर पर विचर मरुत रखवाल
वेणु में भरता था जब स्वर,
मेमनों – से मेघों के बाल
कुदकते थे प्रमुदित गिरि पर !

द्विरद दंतों – से उठ सुंदर
सुखद कर सीकर – से बढ़ कर,
भूति – से शोभित बिखर बिखर,
फैल फिर कटि के-से परिकर,
बदल यों विविध देश जलधर
बनाते थे गिरि को गजवर !

ईद्रधनु की सुनकर टंकार
उचक चपला के चंचल बाल,
दौड़ते थे गिरि के उस पार
देख उड़ते-विशिखों की धार;

मरुत जब उनको द्रुत इंकार,
रोक देता था मेघासार.
अचल के जब वे विमल विचार
अवनि से उठ उठ कर ऊपर,
विपुल व्यापकता में अविकार
लीन हो जाते थे सत्वर,

विहंगम सा बैठा गिरि पर
सुहाता था विशाल अंबर !

पपीहों की वह पीन पुकार,
निर्झरों की भारी झर झर;
झींगुरों की भीनी झनकार
घनों की गुरु गंभीर गहर;
बिन्दुओं की छनती छनकार,
दादुरों के वे दुहरे स्वर,

हृदय हरते थे विविध प्रकार
शैल-पावस के प्रश्नोत्तर !

खैंच ऐंचीला भ्रू सुरचाप-
शैल की सुधि यों बारंबार–
हिला हरियाली का सुदुकूल,
झुला झरनों का झलमल-हार;
जलद पट से दिखला मुख चंद्र,
पलक पल पल चपला के मार;

भग्न उर पर भूधर सा हाय !
सुमुखि ! धर देती है साकार !

(2)

करुण है हाय ! प्रणय,
नहीं दुरता है जहाँ दुराव;
करुणतर है वह भय
चाहता है जो सदा बचाव;

करुणतम भग्न हृदय,
नहीं भरता है जिसका घाव,
करुण अतिशय उनका संशय
छुड़ाते हैं जो जुड़े स्वभाव !!

किए भी हुआ कहाँ संयोग ?
टला टाले कब इसका वास ?
स्वयं ही तो आया यह पास,
गया भी, बिना प्रयास !

कभी तो अब तक पावन प्रेम
नहीं कहलाया पापाचार,
हुई मुझको ही मदिरा आज
हाय क्या गंगाजल की धार ! !

हृदय. रो, अपने दुख का भार !
ह्रदय ! रो, उनको है अधिकार !
हृदय ! रो यह जड़ स्वेच्छाचार,
शिशिर का सा समीर संचार !

प्रथम, इच्छा का पारावार,
सुखद आशा का स्वर्गाभास;
स्नेह का वासंती संसार,
पुन: उच्छ्वासों का आकाश !

-यही तो है जीवन का गान,
सुख का आदि और अवसान !

सिसकते हैं समुद्र-से मन,
उमड़ते हैं नभ-से लोचन;
विश्व वाणी ही है क्रंदन,
विश्व का काव्य अश्रु कन.

गगन के भी उर में हैं घाव,
देखतीं ताराएँ भी राह;
बंधा विद्युत् छबि में जलवाह
चंद्र की चितवन में भी चाह;

दिखाते जड़ भी तो अपनाव
अनिल भी भरती ठंडी आह !

हाय ! मेरा जीवन,
प्रेम औ” आँसू के कन !
आह मेरा अक्षय धन,
अपरिमित सुंदरता औ’ मन !

-एक वीणा की मृदु झंकार !
कहाँ है सुंदरता का पार !
तुम्हें किस दर्पण में सुकुमारि !
दिखाऊँ मैं साकार ?
तुम्हारे छूने में था प्राण,
संग में पावन गंगा स्नान;
तुम्हारी वाणी में कल्याणि.
त्रिवेणी की लहरों का गान !
अपरिचित चितवन में था प्रात,
सुधामय सांसों में उपचार !
तुम्हारी छाया में आधार,
सुखद चेष्टाओं में आभार !

करुण भोहों में था आकाश,
हास में शैशव का संसार;
तुम्हारी आंखों में कर वास
प्रेम ने पाया था आकार !

कपोलों में उर के मृदु भाव
श्रवण नयनों में प्रिय बर्ताव;
सरल संकेतों में संकोच;
मृदुल अधरों में मधुर दुराव !
उषा का था उर में आवास,
मुकुल का मुख में मृदुल विकास,
चाँदनी का स्वभाव में भास
विचारों में बच्चों के साँस !
बिन्दु में थी तुम सिन्धु अनंत
एक सुर में समस्त संगीत,
एक कलिका में अखिल वसंत,
धरा में थी तुम स्वर्ग पुनीत !

विधुर उर के मृदु भावों से
तुम्हारा कर नित नव श्रृंगार,
पूजता हूँ मैं तुम्हें कुमारि.
मूँद दुहरे दृग द्वार !

अचल पलकों में मूर्ति सँवार
पान करता हूँ रूप अपार,
पिघल पड़ते हैं प्राण,
उबल चलती है दृगजल धार.

बालकों सा ही तो मैं हाय !
याद कर रोता हूँ अजान;
न जाने, होकर भी असहाय,
पुन: किससे करता हूँ मान.

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सुप्ति हो स्वल्प वियोग
नव मिलन को अनिमेष,
दैव ! जीवन भर का विश्लेष
मृत्यु ही है नि:शेष !!

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मूँद पलकों में प्रिया के ध्यान को
थाम ले अब, हृदय ! इस आह्वान को !
त्रिभुवन की भी तो श्री भर सकती नहीं
प्रेयसी के शून्य, पावन स्थान को.
तेरे उज्वल आँसू सुमनों में सदा
वास करेंगे, भग्न हृदय, उनकी व्यथा
अनिल पोंछेगी, करुण उनकी कथा
मधुप बालिकाएँ गाएंगी सर्वदा.

Conclusion

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Pixabay: [1]

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