चाणक्य नीति अध्याय छः – Chanakya Niti Chapter Six

चाणक्य नीति अध्याय छः (Chanakya Niti Chapter Six): नमस्कार दोस्तों! आज के इस पोस्ट में हम चाणक्य नीति अध्याय छः Chanakya Niti Chapter Six) को पढेंगे और इसको समझेंगे. अगर आपको चाणक्य नीति का और सब अध्याय भी पढना है तो इस लिंक पर क्लिक करके आप वहाँ तक पहुच सकते हैं. (यहाँ क्लिक करें)

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चाणक्य नीति अध्याय छः - Chanakya Niti Chapter Six

चाणक्य नीति अध्याय छः – Chanakya Niti Chapter Six

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चाणक्य नीति अध्याय छः - Chanakya Niti Chapter Six
चाणक्य नीति अध्याय छः – Chanakya Niti Chapter Six

श्रुत्वा धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्।।

भावार्थ- यहां आचार्य चाणक्य ने कहा है कि शास्त्रों के श्रवण का मनष्य , जीवन में सुबुद्धि लाने के लिए विशिष्ट महत्त्व व उपयोग है। अतः मनुष्य को शास्त्रों के श्रवण के लिए उत्सुकतापूर्वक लीन हो जाना चाहिए।

व्याख्या- आचार्य चाणक्य उपर्युक्त श्लोक के द्वारा कहते हैं कि मनुष्य के समस्त ज्ञान का आधार श्रवण यानि सुनना है। वेद सुनने के बाद ही मनुष्य अपने दायित्वों का सही मूल्यांकन निश्चित करता है। विद्वानों के प्रवचन सुनकर ही मनुष्य अपने मूर्खतापूर्ण आचरण का आंकलन कर त्याग करता है। गुरुओं को सुनने से ही साधक शिष्य जगत् के मकड़ जंजाल से मुक्त होने का निवारण कर सकेगा यानि मोक्ष प्राप्ति का मार्ग तय करता है।

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पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां कोपी चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः।।

भावार्थ- पक्षियों में काला कौआ, पशुओं में कुत्ता, ऋषियों में क्रोधी तथा मनुष्यों में चुगली करने वाला चाण्डाल कहलाता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि धरा के समस्त प्राणियों में कुछ प्राणी मूलत: स्वभाव से नीच एवं चाण्डाल प्रकृतिधारी होते हैं। पक्षियों में कौआ, पशुओं में कुत्ता नीच स्वभाव के होते हैं। मनुष्यों में जो मनुष्य साधना या तपस्या द्वारा ऊंचे पद को प्राप्त हो जाते हैं। उनमें कुछ व्यक्ति भी स्वभाव से नीच प्रवृत्ति रह जाते हैं।

मुनियों में जो क्रोधी स्वभाव के होते हैं और विद्वान बनकर भा. परनिन्दा (दूसरों की बुराई करने में समर्थ) करने में डूबे रहते हैं तथा अन्य नीच कुत्सित कार्य में मग्न रहते हैं, वे चाण्डाल प्रकृति के होते हैं, अतः दूसरी निंदा रसपान करने वालों को महापापी समझते हुए, उससे यथासम्भव बचाव करना ही सदपुरुष के हितकारी है।

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भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति।
रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति।।

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने अनेक प्रकार से शद्धिकरण का वर्णन किया है।

व्याख्या- इस श्लोक के द्वारा आचार्य ने कहा है कि इस जगत् में मानव प्रवृत्ति की तरह समस्त वस्तुओं के निर्मल होने की विधि भी पृथक्-पृथक् है। कांसे का पात्र (बर्तन) राख से मांजने पर दमक उठता है। तांबे का पात्र इमली के पानी से धोने पर पवित्र हो जाता है। स्त्री की देह रजस्वला होने के बाद स्वर्ण की तरह स्वच्छ होकर चमक जाती है।

शास्त्रों के अध्ययनानुसार रजोदर्शन के पश्चात् स्नान से शुद्ध स्त्री ही संभोग और गर्भधारण के योग्य बन जाती है। यह नारी की वास्तविक शुद्धि (पवित्रता) है। नदी का पानी भी तीव्र गति की धारा में बहने के पश्चात् स्वच्छ निर्मल हो जाता है।

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भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति।। 

भावार्थ- भ्रमणकारी राजा, ब्राह्मण तथा योगी सर्वत्र सम्मानित होते हैं। लेकिन अकारण विचरण करने वाली स्त्री पथभ्रष्ट हो जाती है। 

व्याख्या- इस श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि सम्राट, योगी और ब्राह्मण विचरण करते हुए ही अच्छे लगते हैं। राजा यदि अपने राज्य से दूसरे राज्यों में जाकर सम्पर्क को कायम नहीं बनाए रखता तो उसका नाश निश्चित है। प्रमादी राजन के सेवक कभी जानकारी को सही प्रकार से नहीं पहुंचाते, वे तो सदा ही चापलूसी में मग्न रहते हैं।

इस प्रकार मुनि एक स्थान पर ठहरने से आसक्ति में घिर जाता है। जिससे उसका विरक्त भाव अदृश्य होने लगता है। माया-मोह के भंवर में फंसने के भाव से ही शास्त्रों में योगी को तीन रातों से अधिक एक स्थान पर न रुकने की आज्ञा दी गई है। ब्राह्मण भी यदि घूमता नहीं है तो उसे नए यजमान की प्राप्ति नहीं होती।

पुराने यजमान भी उसके ज्ञान प्रकाश में नवीनता को न पाकर सदा ही उसे मांगते रहने की क्रिया से व्यर्थ पीड़ित होकर उससे पृथक् हो जाते हैं, यहां चाणक्यजी का कहना है कि राजा को वैरी व सखा की जानकारी हेतु, ब्राह्मण को अपनी विद्या व कला के प्रसार हेतु, योगी को अपने वैराग्य की सुरक्षा के लिए विचरणशील होना ही चाहिए।

जहां उक्त तीनों भ्रमण करते हुए ही शोभा पाते हैं, वहीं नारी का घमक्कड प्रतीत होना अवांछनीय एवं वर्जित है। अपने गहर में न उपस्थित रहकर इधर-उधर भटकने की प्रवृत्ति रखने वाली स्त्री शीप परपुरुषों के मकड़जाल में फंसकर रह जाती है और अकारण अनचाहे अम जीवन का पथ पतन कर लेती है। अतः सच्चे चरित्र को अकारण एवं अनाव रूप से अज्ञानवश भी या भूलकर भी दूसरों के यहां घूमने-फिरने की प्रवनि नहीं अपनाना चाहिए। निरुद्देश्य दूसरों के गृहों में ताका-झांकी स्त्री के लिए सर्वशी वर्जित है।

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यस्यास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्यवान्धवाः।
यस्याः सा पुमाल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।। 

भावार्थ- धनवान मनुष्य के पक्ष में मित्र, बन्धु-बांधव सभी एक साथ हो जाते हैं। समाज में धनपति को ही श्रेष्ठ एवं विद्वान माना जाता है।

व्याख्या- उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य का मत है कि इस जगत् में जग की यही रीति है कि धन-संपत्ति पास होने पर मनुष्यों के मित्रों बन्धु-बांधवों की संख्या में वृद्धि हो जाना निश्चित है, धन की प्रचुरता ही मनुष्य को समाज में अधिक यश दिलवाती है। धनाढ्य मनुष्य ही शान-ओ-शौकत के साथ रह सकता है।

धन सब कुछ नहीं किन्तु धन के बिना भी जीवन यात्रा रूपी गाड़ी नहीं दौड़ सकती। सत्य तो यह है कि इस जगत् में केवल धनवान को ही विद्वान और सम्मानित विख्यात मनुष्य समझा जाता है। धनहीन के गुण न केवल उपेक्षित हो जाते हैं, अपितु उसे तो मनुष्य ही नहीं समझा जाता। दरिद्र समझकर, अछूत समझकर तथा अपने संगठन द्वारा बेइज्जती की जाती है, औकात बताई जाती है, धनहीन मनुष्य को सभी हीन दृष्टि से देखते हैं।

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तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता।। 

भावार्थ- इस श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने भाग्य के विषय में कहा है, जैसी होनी होती है, उसी प्रकार मनुष्य की मति भी वैसी ही हो जाती है। वैसे ही साधन बनते हैं और मित्र रूप में सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं। व्यक्ति अपर भाग्यचक्र को परिवर्तित कर सकता है, मगर शर्त यह है कि वह पुरुषार्थ करता रहे।

व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अपने कमा ” फल भोगते हए मनुष्य को भाग्यानुसार जो भी प्राप्त होता है, उसी के अनुप उसकी मति बन जाती है, उसके सहायक भी वैसी ही सलाह दत है।” परिस्थितियां निर्धारित भविष्य के अनकलतम बन जाती हैं, जो भाग्य में विधाता ने लिख दिया है वह होकर ही रहता है, लेकिन भाग्य भी पुरुषार्थ से बदलता रहता है, अत: पुरुषार्थ करना ही हितकर है।

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कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।। 

भावार्थ- इस श्लोक में काल को महत्ता दी गई है। काल संहारकारी है, यह बात मनुष्य को सदा ही स्मरण रखनी चाहिए।

व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि इस जगत् में काल सबसे अधिक शक्तिसम्पन्न है। काल समस्त प्राणियों को पचा जाता है, इसका कोई मनुष्य अतिक्रमण नहीं कर सकता। यह कहीं भी सभी प्राणियों को दुर्बल और जीर्ण कर देता है। काल ही जीवों का पतन करता है। जगत् की प्रलय होने पर तथा सभी के शयन मग्न होने के पश्चात् भी काल जागृत रहता है यानि कालचक्र दिनरात की भांति चलायमान रहता है। क्रान्तदर्शी कवि उसके संचालक बनकर सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।

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न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति।
न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थी दोषान न पश्यति।। 

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि पुरुष को ऐसे विकारों से सदैव दूर रहना चाहिए, जिन विषयों में मग्न होते हुए अंधे या खो जाते हैं।

व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जो बेचारा व्यक्ति अपने जन्म से ” अंधा है या माता के गर्भ से ही अंधा उत्पन्न हुआ है, वह किसी भी उपचार से देखने में समर्थ नहीं हो सकता। विषय वासना के नशे में डूबा व्यक्ति भी अंधा होता है, वह भी कुछ देख नहीं पाता, यानि बेशर्म हो जाता है। ऐसा व्यक्ति पूजनीय पुरुषों को समक्ष देखकर भी वासना से विह्वल होने के कारण से शर्म, संकोच, शीलता, मर्यादा को पालन नहीं कर पाता।

मदिरा के पान से उन्मत्त व्यक्ति भी अंधे जैसे हो जाते हैं। मदिरापान के प्रभाव से, विवेक से पृथक् हो जाने के कारण वे आंख रखते हुए भी अन्धों के समान हो जाता है, इसका उसे कतई स्मरण नहीं रहता। इस प्रकार दुखी व्यक्ति भी अपने स्वामी के दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा करता है, क्योंकि आवश्यकता उसे अंधा बना देती है।

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स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।

भावार्थ- जीव कर्म करने में समर्थ स्वतन्त्र होते हुए भी फल भोगन परतन्त्र है, जीव चाहे तो अशुभ कर्मों को करके स्वयं को जगत के बन्धन और चाहे तो शुद्ध पवित्र आचरण करके मुक्त कर ले, इस प्रकार से अनुसार जीवन की उन्नति अवनति में उसका अपना ही हाथ होता है।

व्याख्या- उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हर की आत्मा, जीवात्मा सभी कर्म करने में आजाद हैं-प्राणी स्वयं ही करता है। उसका फल भी स्वयं भोगता है। सभी समस्त योनियों में भटकता-फिरता यदि सौभाग्य से उनके ज्ञानरूपी नेत्र कपाट खुल जाएं तो अपने ही परुषार अपने पागलपन या मूर्खतापूर्ण के दौर से निकलकर विवेक के मार्ग पर आ जा है, मगर यह भी वह अपने आप की त्यागी तपस्या से सम्भव बना सकता है।

चाणक्य नीति अध्याय छः - Chanakya Niti Chapter Six
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राजा राष्ट्रकृतं भुंक्ते राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा।। 

भावार्थ- राजा, पुरोहित, पति, गुरुदेव का दायित्व क्रमश:-प्रजा, राजा, पत्नी और शिष्य की दृढ़ता के संग सदाचरण में प्रवृत्त करना होता है, इसी में ही उक्त चारों का हित छुपा है।

व्याख्या- इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य बताते हैं कि कर्म करने और फल भोगने में आत्मा प्रायः एकाग्रचित्त होती है, किन्तु इसके अपवाद भी होते हैं जैसे औलाद द्वारा किए गए अपराध का फल माता-पिताश्री को नैतिक दृष्टि में भोगना ही पड़ता है। ऐसे ही प्रजा के द्वारा किए गए दुष्ट कर्मों का फल राजा को स्वयं ही भुगतान करना पड़ता है। पत्नी के द्वारा किए गए अविवेकपूर्ण कार्यों का दण्ड भी पति को स्वयं ही भुगतना पड़ता है और शिष्य की धूर्तता से उसके गुरुदेव को अपमानित होकर दण्ड के रूप में भुगतना पड़ता है।

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ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः।।

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य द्वारा अनेक प्रकार से गुप्त शत्रुआ का वर्णन किया गया है।

व्याख्या- ऋण लेकर गृह का खर्च चलाने वाला पिताश्री वैरी होता है। क्योंकि उसकी मृत्यु हो जाने पर उस कर्ज की अदायगी उसकी संतान का पड़ती है। व्यभिचारिणी माता भी दुश्मन के रूप में निंदनीय और त्याज्य हा क्योंकि वह अपने धर्म से पिताश्री के और पति परमेश्वर के वंश को कलाक’. देती है।

इस प्रकार जो नारी अपने सौन्दर्य का गर्व करके पति परमेश्वर की उपेक्षा करती है, उसे भी शत्रु के समान मानना चाहिए। धूर्त पुत्र भी कुल को कलंकित करता है या करने के समान है, वह भी त्याज्य है, अपने उद्यम से परिवार का निर्वाह करने वाला पिताश्री, पतिव्रता माता और अपने रूपवान और सौन्दर्यता के प्रति घमंड न रखने वाली नारी और विद्वान पुत्र ही श्रेष्ठ होते हैं, हितकारी भी होते हैं।

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लुब्धमथेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्ख छन्दोऽनुवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।

भावार्थ- कंजूस व्यक्ति सदैव धन का भूखा होता है, जोड़-तोड़ से वह धन की प्राप्ति में मग्न रहता है, निन्यानवे के फेर में लगा रहता है। इसलिए उसे धन देकर वशीभूत कर लेना कोई कठिन कार्य नहीं। मूर्ख मनुष्य अपने गर्व की सन्तुष्टि चाहता है, नम्रतापूर्वक उसे भी वशीभूत किया जा सकता है। धूर्त व्यक्ति के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि कब-किस समय क्या कामना कर बैठे। इसलिए उसके मन की अभिलाषा के अनुरूप कार्य कर देने से ही वह सन्तुष्टि को प्राप्त हो सकता है, जबकि विद्वान् मनुष्य वास्तविक स्थिति या सच्ची बात कह देने मात्र से ही तसल्ली पा जाता है।

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वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः।।

भावार्थ- आचार्य चाणक्य के मत के अनुसार किसी परदेश में न रहना ही अधिक हितकर है, किन्तु किसी दुष्ट सम्राट के राज्य में रहना कदापि श्रेयष्कर नहीं। दुष्ट मित्रों की संगति से अच्छा किसी मित्र का न होना, दुष्ट शिष्य होना कोई भी शिष्य का न होना अच्छा है, ठीक इसी प्रकार से बुरी नारी के बजाय बिना स्त्री के रहना सबसे अच्छा है।

व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य को चाहिए कि वह किसी अच्छे राज्य में जाकर वास करे, योग्यतम और शिष्टतम मनुष्यों को ही मित्र बनाना चाहिए और पात्र समझकर ही शिष्य को अपनी विद्या या शिक्षा देनी चाहिए और पतिव्रता तथा सदाचारिणी नारी से ही विवाह संस्कार रचाना उत्तम है। जो मनुष्य आचार्य चाणक्य के मतानुसार नहीं पालन करते, वह सदैव दुःखों के बादलों में घिरे रहते हैं। 

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कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽस्ति निर्वृतिः।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः।। 

भावार्थ- सुखी बने रहने के लिए दयालु राजा के राज्य में वास करना चाहिए। संकटों के बचाव या रक्षार्थ के लिए सुयोग्य व्यक्ति को मिल चाहिए। रतिभोग के सख हेत कुलीन कन्या से विवाह रचाना चाहिए लाभ के लिए योग्यतम पुरुष को शिष्य बनाना चाहिए।

व्याख्या- आचार्य चाणक्य की रचना से दुष्ट क्रूर राजा के राज्य कभी सख का आभास नहीं कर सकती। दुष्ट और नीच मनुष्य से मित्रता किसी भी व्यक्ति का कल्याण सम्भव नहीं है । दुराचारिणी नारी को पत्नी से गृहस्थ सुख का आनन्द कलह में परिवर्तन होकर सम्भोग सख की पारी होगा। ठीक इसी प्रकार से यदि दुष्ट व्यक्ति को शिष्य के रूप में ग्रहण कर लिग जाएगा तो उससे गुरु की कीर्ति में अपयश का प्रसार होगा।

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सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।
वायसात्पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि गर्दभातु।। 

भावार्थ- आचार्य चाणक्य के मतानुसार कि व्यक्ति को शेर व बगले से एक-एक गुण तथा मुर्गे से चार प्रकार के गुण गुनने में संकोच कदापि नहीं करना चाहिए। कुत्ते से छ: गुण, गधे से तीन तथा कौए से पांच गुण सीख लेने चाहिए।

व्याख्या- 

  1. शेर का वांछित गुण-अपने शौर्य से मृत शिकार से भक्षण करना।
  2. बगुले का विशिष्ट गुण-सहवासियों को अपनी दयालुता का यकीन दिलाना।
  3. मुर्गे के विशेष चार गुण-अपनी प्रेमिका को दबोचकर रखना, जाति बन्धुबांधवों से संयुक्त होकर रहना, नव प्रभात में अपनी वाणी से जागृत करना, युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहना। 
  4. कुत्ते के विशेष छ: गुण-स्वामीभक्त, सन्तोष, सहनशीलता, सदैव सावधानी (कच्ची नींद में शयन करना) बरतना, दृढ़ निश्चयी, शत्रु की ओर पंजा का प्रहार करना यानि शत्रु प्रहारक।
  5. गधे के विशेष पांच गुण-भार को ढोना, शान्त मगर मस्त रहना, फल का इच्छा कदापि न रखना।
  6. कौवे के विशेष पांच गण-जागरूकता. किसी पर भी यकीन न करता, गुप्त रूप से मैथुन करना, अद्भुत साहस, आक्रामकता।

उपर्युक्त गुणों की मानव जीवन में उपयोगिता नितान्त आवश्यक है।

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प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ।।

भावार्थ- इस श्लोक के द्वारा ज्ञात होता है कि व्यक्ति जो भी कार्य करे, पूरी ताकत और ईमानदारी से करे तभी वह कार्य सफल हो सकता है। चाणक्य ने इस विषय में सिंह का उदाहरण दिया है। 

व्याख्या- इस श्लोक के माध्यम से कहा है कि व्यक्ति जो भी छोटा या बडा कार्य आरम्भ करे तो अपनी पूरी शक्ति लगाकर ही करे। पूरी शक्ति अर्पित कर प्राणों का दांव खेलकर शिकार जैसा कार्य शेर से सीखना चाहिए, कार्य आरम्भ करके सफलता पाने का मन्त्र पाने का एकमात्र उपाय यही है कि जो भी कार्य तुम करो तो मन से पूरी शक्ति से समर्पण से करना चाहिए।

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इन्द्रियाणि च संयम्य बंकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत।। 

भावार्थ- व्यक्ति को बगुले से कार्य करने की प्रेरणा लेनी चाहिए, जिससे ‘वह पूरी निष्ठा से एकाग्रचित्त होकर सफलता पाता है।

व्याख्या- आचार्य चाणक्य बताते हैं कि बुद्धिमान मनुष्य को यह प्रेरणा या गुण भी बगुले से सीख लेना चाहिए कि समस्त इन्द्रियों को अपने अधीन करके तथा स्थान, समय और अपनी ताकत का पूर्वानुमान लगाकर कार्यसिद्धि के लिए लीन हो जाना चाहिए, यही आवश्यक है।

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सुश्रान्तोंऽपि वहे भारं शीतोष्ण न च पश्यति।
सन्तुष्टश्चरति नित्यं श्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात् ।।

भावार्थ- गधे में भी गुण स्थित हैं, गधे के तीन गुण मनुष्य को अवश्य ग्रहण करने चाहिए।

व्याख्या- उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने कहा है कि विद्वान (मतिवान) मनुष्य को गधे के तीन गुण अवश्य ही चुनने चाहिए- 1. गधे के उत्पन्न थकान से चूर-चूर होने पर बोझ को ढोते रहना यानि अपने दायित्व कर्म से पृथक् न होना। 2. कार्य साधन में सर्दी-गर्मी, बरसात की कदापि परवाह न करना यानि परिस्थितियों में ढलना, जूझना और अपने अनुकूल बनाना, 3. सदैव ही सन्तुष्ट रहकर विचरण या भ्रमण करना यानि फल की चिंता न करके अपने कर्म में लगे रहना या लीन रहना।

उक्त तीन गुण मानव के लिए जीवन भर उपयोगी हैं।

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प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।

भावार्थ- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य को अपने समस्त जीवनी चार गुण मुर्गे से भी ग्रहण अवश्य कर लेने चाहिए-1. समय पर जागत हो की ललकार होने पर उसमें सदैव तत्पर रहना, 3. खाते समय मिलजला संयक्त होकर परिवार के लोगों में बांटकर खाना, 4. स्वयं खोजबीन का पदार्थ भक्षण करना।

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गूढमैथुनचरित्वं च काले काले च संग्रहम।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात।। 

भावार्थ- आचार्य चाणक्य के मतानुसार बुद्धिमान मनुष्य वही होता है जो – यह न देखे कि वह जानवर या पक्षी से क्या और क्यों सीख रहा है-उसे जिसमें भी जो गुण नजर आ जाए, उसे सीखना चाहिए-1. छिपकर मैथुन करना, 2. चारों ओर दृष्टि रखना अर्थात् चौकस रहना, 3. उचित समय पर भविष्य के लिए कछ ना कुछ संग्रह करना, 3. कभी आलसी न होना, 4. किसी पर भरोसा न करना। 

उपर्युक्त समस्त बातें स्मरण करनी चाहिए।

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बवाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः।। 

भावार्थ- आचार्य चाणक्य ने कहा है, कुत्ते में छ: गुण विद्यमान होते हैं, मनुष्यं को ये गुण अपनाने चाहिए।

व्याख्या- कहा गया है कि कुत्ते के गुणों (आदतों) से मनुष्य शिक्षा ग्रहण कर सकता है-1. भूख लगने पर झपटकर खूब डटकर खाना, 2. ज्यादा भोजन न मिलने पर भी सन्तुष्ट रहना, 3. जरा-सी आहट होने पर सजग होना, 4. स्वामीभक्त, 5. कृतज्ञता, 6. अपने स्वामी के इशारे पर साहसपूर्वक दुश्मन पर टूट पड़ना यानि अपनी शूरता का प्रदर्शनकारी।

उपर्युक्त कुत्ते के गुणों को मनुष्य को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

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य एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः।
कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।

भावार्थ- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य का मत है कि जो बुद्धिमान पुरुष इन सुन्दर गुणों को अपने मूल स्वभाव में सम्मिलित करेगा और उन पर अमल करेगा, वह अपने सभी समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त कर विजयी हो जाएगा। मनुष्य का सर्वोत्तम गुण यही है कि किसी भी गण को बुद्धिपर्वक अपने मस्तिष्क में परिपूर्ण विद्यमान करे।

व्याख्या- यहां पर आचार्य चाणक्य ने इन्हीं उपर्युक्त गुणों के विषय का विवेचन कर सम्बोधित किया है, उनका अभिप्राय यह है कि जो समझदार पुरुष सिंह, बगुले, मुर्गे, कुत्ते, गधे, कौओं से बीस गुण को भली-भांति अध्ययन या गुण लेता है, वह अपने जीवन में पराजय का मुंह नहीं ताकता। उसे जीवन में सदैव और सर्वत्र विजय की प्राप्ति हो जाती है।

Conclusion

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