नमस्कार दोस्तों! आज मैं फिर से आपके सामने तीन हिंदी कवितायें (Hindi Poems) “मानिनि राधे”, “आहत की अभिलाषा” और “जल समाधि” लेकर आया हूँ और इन तीनो कविताओं को सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan) जी ने लिखा है. आशा करता हूँ कि आपलोगों को यह कविता पसंद आएगी. अगर आपको और हिंदी कवितायेँ पढने का मन है तो आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं (यहाँ क्लिक करें).

मानिनि राधे – हिंदी कविता – सुभद्रा कुमारी चौहान
थीं मेरी आदर्श बालपन से
तुम मानिनि राधे
तुम-सी बन जाने को मैंने
व्रत-नियमादिक साधे.
अपने को माना करती थी
मैं वृषभानु-किशोरी.
भाव-गगन के कृष्णचन्द्र की
थी मैं चतुर चकोरी.
था छोटा-सा गाँव हमारा
छोटी-छोटी गलियां.
गोकुल उसे समझती थी मैं
गोपी संग की अलियां.
कुटियों मे रहती थी, पर
मैं उन्हें मानती कुँजें.
माधव का सन्देश समझती
सुन मधुकर की गुंजें.
बचपन गया, नया रंग आया
और मिला वह प्यारा.
मैं राधा बन गयी, न था वह
कृष्णचन्द्र से न्यारा.
किन्तु कृष्ण यह कभी किसी पर
जरा पेम दिखलाता.
लग जाती है आग
हृदय में, कुछ भी नहीं सुहाता.
खूनी भाव उठें उसके प्रति
जो हो प्रिय का प्यारा.
उसके लिए हदय यह मेरा
बन जाता हत्यारा.
मुझे बता दो मानिनि राधे.
प्रीति-रीति वह न्यारी.
क्यों कर थी उस मनमोहन पर
अविचल भक्ति तुम्हारी.
तुम्हें छोड़कर बन बैठे जो
मथुरा-नगर-निवासी.
कर कितने ही ब्याह, हुए जो
सुख-सौभाग्य-विलासी.
सुनतीं उनके गुण-गुण को ही,
उनको ही गाती थीं!
उन्हें याद कर सब कुछ भूली
उन पर बलि जाती थीं.
नयनों के मृदु फूल चढातीं
मानस की मूरत पर.
रहीं ठगी-सी जीवन भर
उस क्रूर श्याम-सूरत पर.
श्यामा कहलाकर, हो बैठी
बिना दाम की चेरी.
मृदुल उमंगों की तानें थीं-
तू मेरा मैं तेरी.
जीवन का न्यौछावर हा हा!
तुच्छ उन्होनें लेखा.
गये, सदा के लिए गये
फिर कभी न मुड़कर देखा.
अटल प्रेम फिर भी कैसा था
कह दो राधारानी!
कह दो मुझे जली जाती हूँ,
छोड़ो शीतल पानी.
ले आदर्श तुम्हारा, रह-रह
मैं मन को समझाती हूँ.
किन्तु बदलते भाव न मेरे
शान्ति नहीं पाती हूँ.
आहत की अभिलाषा – हिंदी कविता – सुभद्रा कुमारी चौहान
जीवन को न्यौछावर करके तुच्छ सुखों को लेखा.
अर्पण कर सब कुछ चरणों पर तुम में ही सब देखा.
थे तुम मेरे इष्ट देवता, अधिक प्राण से प्यारे.
तन से, मन से, इस जीवन से कभी न थे तुम न्यारे.
अपना तुमको समझ, समझती थी, हूँ सखी तुम्हारी.
तुम मुझको प्यारे हो, मैं तुम्हें प्राण से प्यारी.
दुनिया की परवाह नहीं थी, तुम में ही थी भूली.
पाकर तुम-सा सुहृद, गर्व से फिरती थी मैं फूली.
तुमको सुखी देखना ही था जीवन का सुख मेरा.
तुमको दुखी देखकर पाती थी मैं कष्ट घनेरा.
‘मेरे तो गिरधर गोपाल तुम और न दूजा कोई.’
गाते-गाते कई बार हो प्रेम-विकल हूँ रोई.
मेरे हृदय-पटल पर अंकित है प्रिय नाम तुम्हारा.
हृदय देश पर पूर्ण रूप से है साम्राज्य तुम्हारा.
है विराजती मन-मन्दिर में सुन्दर मूर्ति तुम्हारी.
प्रियतम की उस सौम्य मूर्ति की हूँ मैं भक्त पुजारी.
किन्तु हाय! जब अवसर पाकर मैंने तुमको पाया.
उस नि:स्वार्थ प्रेम की पूजा को तुमने ठुकराया.
मैं फूली फिरती थी बनकर प्रिय चरणों की चेरी.
किन्तु तुम्हारे निठुर हृदय में नहीं चाह थी मेरी.
मेरे मन में घर कर तुमने निज अधिकार बढ़ाया.
किन्तु तुम्हारे मन में मैंने तिल भर ठौर न पाया.
अब जीवन का ध्येय यही है तुमको सुखी बनाना.
लगी हुई सेवा में प्यारे! चरणों पर बलि जाना.
मुझे भुला दो या ठुकरा दो, कर लो जो कुछ भावे.
लेकिन यह आशा का अंकुर नहीं सूखने पावे.
करके कृपा कभी दे देना शीतल जल के छींटे.
अवसर पाकर वृक्ष बने यह, दे फल शायद मीठे.
जल समाधि – हिंदी कविता – सुभद्रा कुमारी चौहान
(यह कविता नर्मदा नदी के भंवर में फंसकर डूब जाने वाले देवीशंकर जोशी की मृत्यु पर लिखी गई है.)
अति कृतज्ञ हूंगी मैं तेरी
ऐसा चित्र बना देना.
दुखित हृदय के भाव हमारे.
उस पर सब दिखला देना.
प्रभु की निर्दयता, जीवों की
कातरता दरसा देना.
मृत्यु समय के गौरव को भी
भली-भांति झलका देना.
भाव न बतलाए जाते हैं.
शब्द न ऐसे पाती हूं.
इसीलिए हे चतुर चितेरे!
तुझको विनय सुनाती हूं.
देख सम्हलकर, खूब सम्हलकर
ऐसा चित्र बना देना.
सुंदर इठलाती सरिता पर
मंदिर-घाट दिखा देना.
वहीं पास के पुल से बढ़कर
धारा तेज बहाना फिर.
चट्टान से टकराता-सा
भारी भंवर घुमाना फिर.
उसी भंवर के निकट, किनारे
युवक खेलते हों दो-चार.
हंसते और हंसाते हों वे
निज चंचलता के अनुसार.
किंतु उसी! धारा में पड़कर
तीन युवक बह जाते हों.
थके हुए फिर किसी शिला से
टकराकर रुक जाते हों.
उनके मुंह पर बच जाने का
कुछ संतोष दिखा देना.
किंतु साथ ही घबराहट में
उत्कंठा झलका देना.
गहरी धारा में नीचे अब
एक दृश्य यह दिखलाना.
रो-रो उसे बहा मत देना
कुशल चितरे! रुक जाना.
धारा में सुंदर बलिष्ठ-तन
युवक एक दिखलाता हो.
क्रूर शिलाओं में फंसकर जो
तड़प-तड़प रह जाता हो.
फिर भी मंद हंसी की रेखा
उसके मुंह पर दिखलाना.
नहीं मौत से डरता था वह,
हंस सकता था बतलाना.
किंतु साथ ही धीरे-धीरे
बेसुध होता जाता हो.
क्षण-क्षण से सर्वस्व दीप का
मानो लुटता जाता हो.
ऊपर आसमान में धुंधला-सा
प्रकाश कुछ दिखलाना.
उसी ओर से श्यामा तरुणी का
धीरे-धीरे आना.
बिखरे बाल विरस वदना-सी
आंखे रोई-रोई-सी.
गोदी में बालिका लिए,
उन्मन-सी खोई-खोई-सी.
आशा-भरी दृष्टि से प्रभु की
ओर देखती जाती हो.
दुखिया का सर्वस्व न लुटने
पावे, यही मनाती हो.
इसके बाद चितेरे जो तू
चाहे, वही बना देना.
अपनी ही इच्छा से अंतिम
दृश्य वहां दिखला देना.
चाहे तो प्रभु के मुख पर
कुछ करुणा-भाव दिखा देना.
अथवा मंद हंसी की रेखा,
या निर्लज्ज बना देना.
Conclusion
तो उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारा यह हिंदी कविता “मानिनि राधे”, “आहत की अभिलाषा” और “जल समाधि” अच्छा लगा होगा जिसे सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने लिखा है. आप इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें और हमें आप Facebook Page, Linkedin, Instagram, और Twitter पर follow कर सकते हैं जहाँ से आपको नए पोस्ट के बारे में पता सबसे पहले चलेगा. हमारे साथ बने रहने के लिए आपका धन्यावाद. जय हिन्द.
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