उच्छ्वास | सुमित्रानंदन पंत | हिन्दी कविता

नमस्कार दोस्तों! आज मैं फिर से आपके सामने हिंदी कविता (Hindi Poem) उच्छ्वास लेकर आया हूँ और इस कविता को सुमित्रानंदन पंत (Sumitranandan Pant) जी ने लिखा है.

आशा करता हूँ कि आपलोगों को यह कविता “उच्छ्वास” पसंद आएगी. अगर आपको और हिंदी कवितायेँ पढने का मन है तो आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं (यहाँ क्लिक करें).

उच्छ्वास | सुमित्रानंदन पंत | हिन्दी कविता
उच्छ्वास | सुमित्रानंदन पंत | हिन्दी कविता

उच्छ्वास – सुमित्रानंदन पंत – हिन्दी कविता (Uchchhawas – Sumitranandan Pant – Hindi Poem)

(सावन-भादों)

(सावन)

सिसकते, अस्थिर मानस से
बाल बादल सा उठकर आज
सरल, अस्कूट उच्छ्वास !
अपने छाया के पंखों में
(नीरव घोष भरे शंखों में)
मेरे आँसू गूँथ, फैल गंभीर मेघ सा,
आच्छादित कर ले सारा आकाश !

यह अमूल्य मोती का साज,
इन सुवर्णमय, सरस परों में
(शुचि स्वभाव से भरे सरों में)
तुझको पहना जगत देखले; -यह स्वर्गीय प्रकाश !

मंद, विद्युत सा हँसकर,
वज्र सा उर में धंसकर

गरज, गगन के गान ! गरज गंभीर स्वरों में,
भर अपना संदेश उरों में, औ’ अधरों में;
बरस धरा में, बरस सरित, गिरि, सर, सागर में,
हर मेरा संताप, पाप जग का क्षणभर में !

हृदय के सुरभित साँस!
जरा है आदरणीय;
सुखद यौवन ! बिलास् उपवन रमणीय;
शैशव ही है एक स्नेह की वस्तु, सरल, कमनीय,
-बालिका ही थी वह भी!

सरलपन ही था उसका मन
निरालापन था आभूषण,
कान से मिले अजान नयन
सहज था सजा सजीला तन !
सुरीले, ढीले अधरों बीच
अधूरा उसका लचका गान
विचक बचपन को, मन को खींच
उचित बन जाता था उपमान ।

छपी सी पी सी मृदु मुसकान
छिपीसी, खिंची सखी सी साथ,
उसी की उपमा सी बन, मान
गिरा का धरती थी, धर हाथ !

रंगीले, गीले फूलों-से
अधखिले भावों से प्रमुदित
बाल्य सरिता के फूलों से
खेलती थी तरंग सी नित !
-इसी में था असीम अवसित !

मधुरिमा के मधुमास !
मेरा मधुकर का सा जीवन
कठिन कर्म है, कोमल है मन;
विपुल मृदुल सुमनों से सुरभित,
विकसित है विस्तृत जग उपवन !

यहीं हैं मेरे तन, मन, प्राण,
यही हैं ध्यान, यही अभिमान;
धूलि की ढेरी में अनजान
छिपे हैं मेरे मधुमय गान !

कुटिल कांटे हैं कहीं कठोर,
जटिल तरु जाल हैं किसी ओर,
सुमन दल चुन चुन कर निशि-भोर
खोजना है अजान वह छोर ।
-नवल कलिका थी वह !

उसके उस सरलपने से
मैंने था हृदय सजाया,
नित मधुर मधुर गीतों से
उसका उर था उकसाया ।

कह उसे कल्पनाओं की
कल कल्प लता, अपनाया;
बहु नवल भावनाओं का
उसमें पराग था पाया ।

मैं मंद हास सा उसके
मृदु अधरों पर मंडराया;
औ’ उसकी सुखद सुरभि से
प्रतिदिन समीप खिंच आया ।

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश !

मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार बार
नीचे जल में निज महाकार;

-जिसके परणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल ! !

गिरि का गौरव गाकर झर् झर्
मद से नस नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों से सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर !

गिरिवर के उर से उठ उठकर
उच्चाकांक्षाओं – से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर,
अनिमेष, अटक कुछ चिन्तापर !

-उड़ गया, अचानक, लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर !
रव शेष रह गए हैं निर्झर
है टूट पडा भू पर अंबर !

धंस गए धरा में सभय शाल
उठ रहा धुंआं, जल गया ताल !
-यों जलद यान में विचर, विचर,
था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल !
(वह सरला उस गिरि को कहती थी बादल घर !)

इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी;
सरल शैशव की सुखद सुधि सी वही
बालिका मेरी मनोरम मित्र थी!

(भादों)

यही तो है बचपन का हास
खिले यौवन का मधुप विलास,
प्रौढ़ता का वह बुद्धि विकास,
जरा का अंतर्नयन प्रकाश !
जन्मदिन का है यही हुलास,
मृत्यु का यही दीर्घ नि:श्वास !

है यह वैदिक वाद;
विश्व का सुख दुखमय उन्माद !
एक्तामय है इसका नाद-
गिरा हो जाती है सनयन,
नयन करते नीरव भाषण;
श्रवण तक आ जाता है मन,
स्वयं मन करता बात श्रवण ।

अणुओं में रहता है हास
हास में अश्रुकणों का भास;
श्वास में छिपा हुआ उच्छ्वास
और उच्छ्वासों ही में प्यास !

बँधे हैं जीवन तार;
सब में छिपी हुई है यह झंकार !
हो जाता संसार
नहीं तो दारुण हाहाकार !

मुरली के-से सुरसीले
हैं इसके छिद्र सुरीले;
अगणित होने पर भी तो
तारों-से हैं चमकीले ।

अचल हो उठते हैं चंचल;
चपल बन जाते हैं अविचल;

पिघल पड़ते हैं पाहन दल;
कुलिश भी होजाता कोमल !

चबाता भी है तो गुण से
डोर कर में है, मन आकाश;
पटकता भी है तो गुण से,
खींचने को चकई सा पास !

मर्म पीडा के हास !

रोग का है उपचार;
पाप का भी परिहार;
है अदेह संदेह, नहीं है इसका कुछ संस्कार !
हृदय की है यह दुर्बल हार !!

खींच लो इसको, कहीं क्या छोर है ?
द्रोपदी का यह दुरंत दुकूल है !
फैलता है ह्रदय में नभ बेलि सा,
खोज लो, इसका कहीं क्या मूल है ?

यही तो कांटे सा चुपचाप
उगा उस तरुवर में, सुकुमार
सुमन वह था जिसमें अविकार-
वेध डाला मधुकर निष्पाप ! !

बड़ों में दुर्बलता है शाप !
नहीं चल सकते गिरिवर राह,
न रुक सकता है सौरभवाह !

तरल हो उठता उदधि अथाह,
सूर का दुख देता है दाह !
देख हाय ! यह, उर से रह रह निकल रही है आह,
व्यथा का रुकता नहीं प्रवाह !

सिड़ी के गूढ़ हुलास !
बीनते हैं प्रसून दल;
तोड़ते ही हैं मृदु फल;
देखा नहीं किसी को चुनते कोमल कोंपल ! !

अभी पल्लवित हुआ था स्नेह,
लाज का भी न गया था राग ;
पड़ा पाला सा हा ! संदेह,
कर दिया वह नव राग विराग ।

हो गया था पतझड़, मधुकाल,
पत्र तो आते हाय, नवल ।
झड़ गये स्नेह वृंत से फूल,
लगा यह असमय कैसा फल !

मिले थे दो मानस अज्ञात,
स्नेह शशि विजित था भरपूर;
अनिल सा कर अकरुण आघात,
प्रेम प्रतिमा करदी वह चूर !!

घूमता है सम्मुख वह रूप
सुदर्शन हुए सुदर्शन चक्र !
ढाल सा रखवाला शशि आज
हो गया है हा ! असि सा वक्र !!

बालकों का सा मारा हाथ,
कर दिए विकल ह्रदय के तार !
नहीं अब रुकती है झंकार,
यहीं था हा ! क्या एक सितार ?
हुई मरु की मरीचिका आज,
मुझे गंगा की पावन धार !

कहाँ है उत्कंठा का पार ! !
इसी वेदना में विलीन हो अब मेरा संसार !
तुम्हें, जो चाहो, है अधिकार !
टूट जा यहीं यह ह्रदय हार ! ! !
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कौन जान सका किसी के हृदय को ?
सच नहीं होता सदा अनुमान है !
कौन भेद सका अगम आकाश को ?
कौन समझ सका उदधि का गान है ?
है सभी तो ओर दुर्बलता यही,
समभता कोई नहीं-क्या सार है !
निरपराधों के लिए भी तो अहा !
हो गया संसार कारागार है ! !

Conclusion

तो उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारा यह हिंदी कविता उच्छ्वास अच्छा लगा होगा जिसे सुमित्रानंदन पंत (Sumitranandan Pant) जी ने लिखा है. आप इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें और हमें आप Facebook Page, Linkedin, Instagram, और Twitter पर follow कर सकते हैं जहाँ से आपको नए पोस्ट के बारे में पता सबसे पहले चलेगा. हमारे साथ बने रहने के लिए आपका धन्यावाद. जय हिन्द.

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Pixabay: [1]

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