चाणक्य निति – अध्याय 7

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चाणक्य निति अध्याय 7
चाणक्य निति अध्याय 7

चाणक्य निति अध्याय 7 (Chanakya Niti Chapter 7 in Hindi)

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्।।

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि धन का पतन, मन का संताप तथा गृह की बुराइयों, दोषों को, किसी के द्वारा ठगे जाने को और किसी के द्वारा हुए अपने अपमान को बुद्धिमान प्रकाशमान (प्रकट) न करे।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य ने समझाया है कि बुद्धिमान मनुष्य वही है, जिसमें सहनशक्ति विद्यमान होती है, वह अपने धन को नष्ट होने से प्राप्त कष्ट, दुःख, दुश्चरित्र पत्नी या किसी व्यक्ति से ठगे जाने और नीच शब्दों का चयन फिर प्रयोग किए जाने से पीड़ित होकर अपना दुःख किसी पर जाहिर नहीं करना चाहिए।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

धन-धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य का मत है कि धन और अनाज के व्यापार क्रयविक्रय में तथा विद्या का संचय या संग्रह करने में, भोजन के विषय में और आचरण में लज्जा, संकोच न करने वाला पुरुष सुखी रहता है।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जो व्यक्ति धन-धान्य के लेन-देन में विद्या या किसी प्रकार के गुण को सीखने में, खाने-पीने और हिसाब-किताब में शर्म कदापि नहीं रखते वे सदैव सुखी रहते हैं।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

सन्तोषाऽमृत-तृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
न च तद् धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त और शांतचित्त रहने वाले पुरुषों को जिस सुख-छाया की प्राप्ति होती है, इधर-उधर दौड़ लगाने और व्यर्थ भटकने वाले कंजूस व्यक्तियों को वह सुख-शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्यजी ने कहा है कि जो मनुष्य सन्तोष रूपी अमृतपान से तृप्ति का अनुभव करते हैं और शांति मग्न रहते हैं, उनसे बड़ा सुखी कौन होगा? धन के लोभ में लोभियों या कंजूसों, इधर-उधर दौड़ लगाने वालों को शांति कहां से नसीब होगी? ऐसे मनुष्य सदैव ही तनावपूर्ण स्थिति में मग्न रहते हैं।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य का मत है कि अपनी पत्नी, भोजन और धन इन तीन वस्तुओं से सन्तुष्ट होना चाहिए, परन्तु अध्ययन करने, तप करने और देनेइन तीन बातों से असंतुष्ट रहना चाहिए।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने समझाया है कि पुरुष को पत्नी, भोजन, संपत्ति (धन) आदि विषयों में पूर्णतः सन्तुष्ट होना चाहिए, परन्तु अध्ययन, तपस्या और दान इन तीनों पुत्रों से सन्तुष्ट कदापि नहीं होना चाहिए। इन तीनों सूत्रों का नित्य अभ्यास जीवन में अनिवार्य है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

विप्रयोर्विप्रवयोश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः।
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च।। 

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य के नत में कहते हैं कि दो व्यक्तियों के बीच में गुजरने से व्यक्ति को अपमानित या लज्जित ही होना पड़ता है और उसके कष्ट होने की भी शंका सदैव बनी रहती है अत: दो व्यक्तियों के मध्य से कदापि नहीं गुजरना चाहिए।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि दो ब्राह्मणों के तथा ब्राह्मण और अग्नि के, पति-पत्नी के, स्वामी और सेवक के, हल और बैल के बीच के मार्ग से कभी नहीं गुजरना चाहिए या बीच या मध्य को मार्ग नहीं बनाना चाहिए।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च।
नैव गां न कुमारी च न वृद्धं न शिशुं तथा।।

भावार्थ– इस श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अग्नि को, गुरुजन को और न ही ब्राह्मण को ही पैरों से स्पर्श करना चाहिए न ही गाय को और न कन्या को, न वृद्ध को और न शिशु को ही पैर से स्पर्श करना चाहिए।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने अपने मत को प्रकट कर कहा है कि अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुंआरी कन्या, बूढ़े अथवा शिशु को कदापि पैर नहीं लगाना चाहिए। उन्हें पैर से स्पर्श करना वर्जित है या अनुचित है, ऐसा करना उनके प्रति अपमान तो है ही, उपेक्षा भाव को भी प्रकट कर देना है।

इनको पैरों से स्पर्श करना मूर्खता के समान है और मूर्खता को प्रदर्शित करना है, क्योंकि ये, समस्त सभी आदर के पात्र, पूजनीय और प्रिय सम्बन्ध रखते हैं।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्।
हस्ती शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम्।।

भावार्थ– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि छकड़ा गाड़ी को पांच हाथ दूर से, अश्व को दस हाथ दूर से, गज को सौ हाथ दूर से और दुर्जन का तो देश ही त्याग करके संगत छोड़ देनी चाहिए।

व्याख्या– उपर्युक्त वर्णन में वर्णित प्राणधारियों से पृथक् रहने का तात्पर्य यह है कि गाड़ी में जुते या संलग्न बैल या गाड़ी दोनों से पीड़ा हो सकती है या चोट लग सकती है, घोड़ों से दुलत्ती यानि टांगों के उछलने पर चोट लग सकती है। इस प्रकार हाथी से भी पीड़ा का भय बना रहता है।

मगर दुष्ट व्यक्ति से तो ऐसे बचाव करे कि उसकी शक्ल ही दिखाई न पड़े। उसकी क्रूर छाया से दूर रहने का उपाय अगर अपना देश भी छोड़ना पड़े तो तुरन्त देश त्यागने में संकोच नहीं करना चाहिए। 

(चाणक्य निति अध्याय 7)

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताड्यते।
शृंगी लगुडहस्तेन खङ्गहस्तेन दुर्जनः।।

भावार्थ– गज हाथ में पकड़े अंकुश से, अश्व हाथ में पकड़े चाबुक से, सींगधारी पशु हाथ में पकड़े डंडे से वश में किया जाता है और दुष्ट पुरुष हाथ में ली गई तलवार से मरता है। 

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हाथी, घोड़े या सींगयुक्त पशु को मनुष्य किसी न किसी तरकीब या युक्ति द्वारा सुधार लेता है, परन्तु दुष्ट मनुष्य की बुरी या गंदी आदतों एवं स्वभाव को किसी भी तरकीब द्वारा नहीं सुधारा जा सकता। इसके लिए तो तलवार जैसे घातक अस्त्र का ही प्रयोग करना सही होता है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते।
साधवः परसम्पत्तौ खलः परविपत्तिषु।। 

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि जगत् का प्रत्येक प्राणधारी अपने स्वभाव द्वारा अपनी प्रिय मनपसन्द वस्तु को देखकर खुशहाल हो जाता है, परन्तु दुष्ट प्रकृति व्यक्ति दूसरों को विपत्तियों में देखकर ही प्रसन्नचित्त होता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि ब्राह्मण भरपेट भोजन मिल जाने पर सन्तुष्ट हो जाते हैं। और मेघों के गर्जन करने पर प्रसन्नचित्त होकर नृत्य करने लगते हैं। सज्जन लोग दूसरों के धन-धान्य को देखकर हर्षित हो जाते हैं और दुष्ट व्यक्ति दूसरों को विपत्तियों में घिरा देखकर हद से ज्यादा खुशहाल होते हैं।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्।
आत्मतुल्यबलं शत्रु विनयेन बलेन वा।। 

भावार्थ– इस श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शक्तिशाली वैरी को उसके अनुकूलतम आचरण करके दुष्ट दुश्मन को उसके प्रतिकूल आचरण कर वश में करना चाहिए और अपने समान शक्ति वाले रिपु को वन्दना से या बल से जीत ले या वश में कर ले।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने बताया है कि अपने से बलशाली मनुष्य को उसके अनुकूल व्यवहार करके, दुष्ट व्यक्ति को उसके प्रतिकूल आचरण करके तथा अपने समान वाले मनुष्य के संग प्रार्थना या बल का उपयोग करके ही विजय पाई जा सकती है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

बाहुवीर्यं बलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली।
रूपयौवनमाधुर्यं स्त्रीणां बलमुत्तमम्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य का मत है कि राजा की शक्ति या बल भुजाओं का बल है, वेद और ईश्वर का ज्ञाता ब्राह्मण बली (बलवान) होता है। सौंदर्य, यौवन और माधुर्य नारियों का सर्वश्रेष्ठ बल या गहना होता है।

व्याख्या– वैसे तो सेना को सम्राट की शक्ति माना गया है, मगर आचार्य चाणक्य जी का कहना है कि राजा को अपने आप को भी शारीरिक रूप से सुदृढ़ और बलशाली होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार से स्त्रियों की शक्ति उनकी सौंदर्यता, यौवन एवं कुशल आचरण रूप से होती है। वे अपने इन गुणों के कारण बड़े-बड़े तपस्वियों को भी अपने वश में करने का दम भर सकती हैं।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अत्यधिक सीधे स्वभाव की प्रकृति का कदापि नहीं होना चाहिए। वन में विचरण कर देखो, वहां सीधे वृक्ष काट दिए जाते हैं और टेढे-मेढ़े पेड़ फिर भी खड़े रहते हैं।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य यह बताना चाहते हैं कि ‘पुरुष को अपनी चतुरता और तरकीब से कार्य लेना चाहिए। अत्यन्त सीधे और सरल प्रकृति मनुष्य का जीवन भी बड़ी मुश्किल से कटता है।

अत: याद रखना चाहिए कि सीधे वृक्षों को काट दिया जाता है यानि सीधे-सरल व्यक्ति को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है और बहिष्कृत करने वाले समाज के व्यक्ति जो पेड़ों की तरह टेढ़े-मेढ़े होते हैं, उन व्यक्तियों का सर्वत्र समाज में स्थान रहता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को तिरछा यानी चतुर होना जरूरी है। 

(चाणक्य निति अध्याय 7)

यंत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसाः तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते।।

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य बता रहे हैं कि मनुष्य को हंस के समान आचरण नहीं करना चाहिए, उसे चाहिए कि वह जिसका आश्रय एक बार ले, उसे कभी न छोड़े।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जहां पानी होता है, हंस वहीं रहते हैं. या रहने योग्य स्थान बना लेते हैं, परन्तु व्यक्ति को हंस के समान नहीं बनना चाहिए कि जो बार-बार त्याग देते हैं और बार-बार शरण लेते हैं, यानि मनुष्य को स्वार्थी नहीं होना चाहिए।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाऽम्भसाम्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अर्जित (कमाया हुआ) धन का त्याग करना (दान देना, खर्च करना) ही उनकी रक्षा है, जैसे तालाब के भीतर भरे हुए जलों को निकालने से ही उसकी रक्षा होती है।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अनेक समय से पानी से सम्पूर्ण भरे हुए पोखर को सड़ांध, काई, कीचड़ और दुर्गन्ध से बचाव करने के लिए आवश्यक है कि उस दुर्गंधित जल को बदल दिया जाए। इसी प्रकार बहुत प्रयत्न से संग्रहित धन को भी देने से बचाया जा सकता है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

यस्याऽस्तिस्य मित्राणि यस्याऽस्तिस्य बान्धवाः।
यस्याऽर्थाः स पुमाल्लोके यस्याऽर्थाः स च जीवति।।

भावार्थ– आचार्य चाणक्य इस श्लोक द्वारा सन्देश देते हैं कि मनुष्य को जीवन जीने के लिए सबसे पहले धन की आवश्यकता पडती है। धनी व्यक्ति ही समाज में चतुर व बुद्धिमान माना जाता है।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जगत् में जिसके पास धन है, उसी के सभी मित्र बन जाते हैं। जिसके पास द्रव्य हो, उसके सभी बन्धु जल्द ही बन जाते हैं। जिसके पास धन हो, वही मनुष्य अमीर आदमियों में गिन लिया जाता है और जिसके पास धन होता है, वही ठाठ से जीता है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।
दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि उक्त गुणों से परिपूर्ण मनुष्य धरा पर वास करते हुए भी स्वर्ग में निवास करते प्रतीत होता है, यानि उन्हें अपने कार्यों द्वारा धरा पर ही स्वर्ग के सभी सुख नसीब हो जाते हैं।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य के मतानुसार कि यहां इस जगत् में, स्वर्ग में, रहने वालों की देह में चार चिह्न विद्यमान होते हैं-दान के स्वभाव की प्रवृत्ति तथा मधुरतम भाषण करना, देवों का आदर सत्कार और वेदों के विद्वान और ब्रह्मनिष्ठों को तृप्त करना।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ।।

भावार्थ– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अत्यन्त क्रोध और अत्यन्त कड़वे, कठोर एवं कर्कश भाषण दरिद्रता, निर्धनता अपने बन्धु-बान्धवों के संग शत्रुभावना, नीचों की संगत तथा कुलहीन की सेवा–ये चिह्न नरक में वास करने वालों की देह में विद्यमान होते हैं। 

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि अत्यन्त गुस्सा, कड़वी बात, अपने मित्रों से द्वेष, कुसंग, दरिद्रता और नीच व्यक्ति की सेवा करना दुष्ट व्यक्तियों की विशेषता है। इन दुर्गुणों के कारण वे यहीं पर नरक के समान यातना या पीड़ा भोगते रहते हैं। 

(चाणक्य निति अध्याय 7)

गम्यते यदि मृगेन्द्र-मन्दिरं लभ्यते करिकपोलमौक्तिकम्।
जम्बुकाऽऽलयगते च प्राप्यते वत्स-पुच्छ-खर-चर्म-खण्डनम्।।

भावार्थ– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि साहसयुक्त और शूरवीरों की संगति में खतरे की शंका होने पर भी दुर्लभ रत्न हासिल हो सकते हैं, परन्तु ठगों और कायरों की कुसंगति से कुछ हासिल नहीं होता।

व्याख्या– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई पुरुष शेर की गुफा में जा पहुंचे तो उसे वहां हाथी के मस्तक का मोती प्राप्त होता है और गीदड़ के स्थान पर पहुंचने से बछड़े की पूंछ तथा गधे की चमड़ी का टुकड़ा ही नसीब होता है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना।
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि विद्या के बगैर मनुष्य का जीवन कुत्ते की पूंछ के समान बेकार या व्यर्थ है, क्योंकि कुत्ते की पूंछ न तो गुप्त इन्द्रिय को ढकने में समर्थवान होती है, न ही मच्छर तथा काटने वाले जीवों से रक्षा या उड़ा सकती है।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जिस प्रकार से कुत्ते की पूंछ से न तो उसके गुप्त अंगों का छिपाव होता है और न ही वह मच्छरों के दंश को रोक सकती है। इस प्रकार विद्या से पृथक् जीवन जीना भी व्यर्थ है, क्योंकि विद्याहीन पुरुष मूर्ख होने से न अपनी रक्षा कर सकता है और न ही भरणपोषण कर सकता है।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

वाचः शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूते दया शौचं एतच्छौत्रं पराऽर्थिनाम्।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि वाणी की शुद्धता और मन की पवित्रता, शुद्धि, इन्द्रियों पर संयम, प्राणी मात्र पर दयालुता और धन की पवित्रतायही परोपकारियों या मोक्ष की चाह रखने वालों की शुद्धि (पवित्रता) है।

व्याख्या– उपर्युक्त श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने कहा है कि परोपकार ही सच्ची पवित्रता है। बिना परोपकार की भावना के मन, वाणी एवं इन्द्रियां पवित्र कदापि नहीं हो सकतीं। व्यक्ति को सदैव चाहिए कि वह अपने मन में दयालुता, परोपकार की भावना में वृद्धि करे।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः।। 

भावार्थ– आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हे पुरुष! जैसे तू फूल में महक को, तिल में तेल को, लकड़ी में अग्नि को, दूध में घी को, ईख में गुड़ को विचार मंथन कर देखता है, वैसे ही तू देह में विद्यमान आत्मा को भी अपने विवेक से देख। 

व्याख्या– आचार्य चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य को चाहिए कि इस गुप्त रहस्य को समझने का प्रयत्न अवश्य करे कि वह देह न होकर आत्मा है, आत्मारूपी तत्त्व इस राज्य में उसी प्रकार से विद्यमान है, जिस प्रकार पुष्पों में गन्ध, तिलों में तेल एवं लकड़ी में अग्नि तथा गन्ने में गुड़ का मिठास और दूध में घी स्थित होकर भी अदृश्य रहते हैं।

(चाणक्य निति अध्याय 7)

Conclusion

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