चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये | मिर्ज़ा ग़ालिब | हिंदी शायरी

नमस्कार दोस्तों! आज मैं फिर से आपके सामने हिंदी शायरी (Hindi Poetry) चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये, मसजिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिये और ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत लेकर आया हूँ और इस शायरी को मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) जी ने लिखा है.

आशा करता हूँ कि आपलोगों को यह शायरी पसंद आएगी. अगर आपको और हिंदी शायरी पढने की इच्छा हो तो आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं (यहाँ क्लिक करें).

चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये
चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये

मसजिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिये

मसजिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिये
भौं पास आंख किबला-ए-हाजात चाहिये

आशिक हुए हैं आप भी एक और शख़स पर
आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिये

दे दाद ऐ फ़लक दिल-ए-हसरत-परसत की
हां कुछ न कुछ तलाफ़ी-ए-माफ़ात चाहिये

सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तकरीब कुछ तो बहर-ए-मुलाकात चाहिये

मय से ग़रज़ नशात है किस रु-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिये

है रंग-ए-लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं जुदा जुदा
हर रंग में बहार का इसबात चाहिये

सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिये हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
रू सू-ए-किबला वकत-ए-मुनाजात चाहिये

यानी ब-हसब-ए-गरिदश-ए-पैमान-ए-सिफ़ात
आरिफ़ हमेशा मसत-ए-मय-ए-ज़ात चाहिये

नशव-ओ-नुमा है असल से ”ग़ालिब” फ़ुरू को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिये

ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत

ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत सर उठाने की
फ़लक का देखना तकरीब तेरे याद आने की

खुलेगा किस तरह मज़मूं मेरे मकतूब का यारब
कसम खायी है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की

लिपटना परनियां में शोला-ए-आतिश का आसां है
वले मुशिकल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की

उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्म्यों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की

हमारी सादगी थी इलतफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तेरा आना न था ज़ालिम मगर तमहीद जाने की

लकद कूब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मेरी ताकत कि ज़ामिन थी बुतों के नाज़ उठाने की

कहूं क्या ख़ूबी-ए-औज़ा-ए-अबना-ए-ज़मां ‘ग़ालिब’
बदी की उसने जिस से हमने की थी बारहा नेकी

चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये

चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये
ये अगर चाहें, तो फिर क्या चाहिये

सोहबत-ए-रिन्दां से वाजिब है हज़र
जा-ए-मै अपने को खींचा चाहिये

चाहने को तेरे क्या समझा था दिल
बारे, अब इस से भी समझा चाहिये

चाक मत कर जैब बे-अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये

दोसती का परदा है बेगानगी
मुंह छुपाना हम से छोड़ा चाहिये

दुशमनी में मेरी खोया ग़ैर को
किस कदर दुशमन है, देखा चाहिये

अपनी, रुसवायी में क्या चलती है सअई
यार ही हंगामाआरा चाहिये

मुन्हसिर मरने पे हो जिस की उमीद
नाउमीदी उस की देखा चाहिये

ग़ाफ़िल, इन महतलअतों के वासते
चाहने वाला भी अच्छा चाहिये

चाहते हैं ख़ूब-रूयों को, ‘असद’
आप की सूरत तो देखा चाहिये

Conclusion

तो उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारा यह हिंदी शायरी “चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये, मसजिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिये और ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत” अच्छा लगा होगा जिसे मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) जी ने लिखा है. आप इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें और हमें आप Facebook Page, Linkedin, Instagram, और Twitter पर follow कर सकते हैं जहाँ से आपको नए पोस्ट के बारे में पता सबसे पहले चलेगा. हमारे साथ बने रहने के लिए आपका धन्यावाद. जय हिन्द.

चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये

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