ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना | मिर्ज़ा ग़ालिब हिंदी शायरी

नमस्कार दोस्तों! आज मैं फिर से आपके सामने हिंदी शायरी (Hindi Poetry) “ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना, सब कहां ? कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं और मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं” लेकर आया हूँ और इस शायरी को मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) जी ने लिखा है.

आशा करता हूँ कि आपलोगों को यह शायरी पसंद आएगी. अगर आपको और हिंदी शायरी पढने की इच्छा हो तो आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं (यहाँ क्लिक करें).

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना - मिर्ज़ा ग़ालिब - हिंदी शायरी
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना – मिर्ज़ा ग़ालिब – हिंदी शायरी

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रकीब आख़िर था जो राज़दां अपना

मय वो कयों बहुत पीते बज़म-ए-ग़ैर में, यारब
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इमतहां अपना

मंज़र इक बुलन्दी पर और हम बना सकते
अरश से उधर होता काश के मकां अपना

दे वो जिस कदर ज़िल्लत हम हंसी में टालेंगे
बारे आशना निकला उनका पासबां अपना

दर्द-ए-दिल लिखूं कब तक, जाऊं उन को दिखला दूं
उंगलियां फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना

घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अबस बदला
नंग-ए-सिजदा से मेरे संग-ए-आसतां, अपना

ता करे न ग़म्माज़ी, कर लिया है दुशमन को
दोसत की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना

हम कहां के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुशमन आसमां अपना

सब कहां ? कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं

सब कहां ? कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिनहां हो गईं

याद थी हमको भी रंगा-रंग बज़मआराययां
लेकिन अब नक्श-ओ-निगार-ए-ताक-ए-निसियां हो गईं

थीं बनातुन्नाश-ए-गरदूं दिन को परदे में नेहां
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियां हो गईं

कैद से याकूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आंखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िन्दां हो गईं

सब रकीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलेख़ा ख़ुश कि महवे-माह-ए-कनआं हो गईं

जू-ए-ख़ूं आंखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक
मैं ये समझूंगा के दो शमअएं फ़रोज़ां हो गईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुलद में हम इंतकाम
कुदरत-ए-हक से यही हूरें अगर वां हो गईं

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परीशां हो गईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिसतां खुल गया
बुलबुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वां हो गईं

वो निगाहें कयों हुयी जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-किस्मत से मिज़गां हो गईं

बस कि रोका मैंने और सीने में उभरीं पै-ब-पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबां हो गईं

वां गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब ?
याद थीं जितनी दुआयें, सरफ़-ए-दरबां हो गईं

जां-फ़िज़ां है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जां हो गईं

हम मुवहद्द हैं, हमारा केश है तरक-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गईं, अज़्ज़ा-ए-ईमां, हो गईं

रंज से ख़ूगर हुआ इनसां तो मिट जाता है रंज
मुशिकलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं

यूं ही गर रोता रहा ‘ग़ालिब’, तो ऐ अहल-ए-जहां !
देखना इन बसितयों को तुम, कि वीरां हो गईं

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाये
वगरना ताब-ओ-तबां बालो-पर में ख़ाक नहीं

ये किस बहशत-शमायल की आमद-आमद है ?
कि ग़ैर-ए-जलवा-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं

ख़याल-ए-जलवा-ए-गुल से ख़राब है मयकश
शराबख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुआ हूं इशक की ग़ारतगरी से शरिमन्दा
सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं

हमारे शे’र हैं अब सिरफ़ दिल-लगी के ”असद”
खुला कि फ़ायदा अरज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

Conclusion

तो उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारा यह हिंदी शायरी “ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना, सब कहां ? कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं और मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं” अच्छा लगा होगा जिसे मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) जी ने लिखा है. आप इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें और हमें आप Facebook Page, Linkedin, Instagram, और Twitter पर follow कर सकते हैं जहाँ से आपको नए पोस्ट के बारे में पता सबसे पहले चलेगा. हमारे साथ बने रहने के लिए आपका धन्यावाद. जय हिन्द.

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